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जैन-मक्तिके भेद परमगुरु, भगवान् महावीरको स्तुति करता हूँ।" उन्होंने १९ पद्योंमें पंचकल्याणोंका विशद वर्णन किया है और अन्तमें लिखा है कि जो कोई इस पंचकल्याणपरक स्तोत्रको पढ़ता है, वह इस मनुष्यलोकमें अनन्त परम सुख भोग कर, अन्तमें अक्षय शिव-पद प्राप्त करेगा। तीर्थक्षेत्रोंके भेद
जहाँसे तीर्थकर या दूसरे महात्मा निर्वाणको प्राप्त हुए हैं, वे सिद्ध-क्षेत्र कहलाते हैं । संस्कृत निर्वाणभक्तिमें, सिद्ध क्षेत्रोंके भी दो भेद किये गये हैं-एक तो वह जहाँसे केवल तीर्थकर ही मोक्षको गये ,और दूसरे वह जहाँसे अन्य महापुरुषोंका निर्वाण हुआ। प्राकृत निर्वाणभक्तिमें, अतिशय तीर्थ क्षेत्रोंकी भी कल्पना की गर्ग है। अतिशय क्षेत्र वे हैं, जो किसी मति अथवा तत्रस्थ देवताके चामत्कारिक
१. कल्याणैः संस्तोष्ये पञ्चमिरनघं त्रिलोकपरमगुरुम् ।
मन्यजनतुष्टिजननैर्दुरवापैः सन्मतिं भक्त्या ॥
आचार्य पूज्यपाद, संस्कृतनिर्वाणभक्ति, श्लो० २, दशभक्ति : पृ० २१९ । २. इत्येवं भगवति वर्धमानचन्द्रे यः स्तोत्रं पठति सुसन्ध्ययोर्द्वयोर्हि ।
सोऽनन्तं परमसुखं नृदेवलोके भुक्त्वान्ते शिवपदमक्षयं प्रयाति ॥
देखिए वही : श्लोक २०, पृ० २२७। ३. अष्टापद ( ऋषभनाथ ), चम्पापुरी ( वासुपूज्य ), ऊर्जयन्त ( नेमिनाथ ),
पावापुरी ( महावीर ) और सम्मेदशिखर ( बीस तीर्थकर ) सिद्धक्षेत्र कहलाते हैं। आचार्य पूज्यपाद, संस्कृत निर्वाण भक्ति : दशभक्ति : इलोक २२-२५,
पृ. २२८-२३०। ४. शत्रुजय, तुंगीगिरि, द्रोणगिरि, मेढ़गिरि, सिद्धवरकूट, विपुलाचल,
बलाहक, विन्ध्यपर्वत, पोदनपुर, वृषदीपक, सह्याद्रि, हिमवान् , सुप्रतिष्ठ, दण्डात्मक, गजपन्थ और प्रथुसारयष्टि से अन्य मुनि मोक्ष गये हैं। उनकी संग्ख्याका निर्देश प्राकृत निर्वाणभक्तिमें हआ है। देखिए, संस्कृत निर्वाणभक्ति : श्लोक २५-२७ और प्राकृत निर्वाणभक्ति : गाथा ३-१९, दशमनि : पृष्ठ क्रमश : २३३,२३४,२३७-२४२ । णिवाणठाण जाणिवि अइसयठाणाणि अइसये सहिया । संजाद मिच्चलोए सम्वे सिरसा णमंसामि ॥ प्राचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृत निर्वाणभक्ति, दशमक्तिः गाथा २", पृष्ट २४४ ।