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जैन-भक्तिके भेद
जिनेन्द्र के चरणोंकी वन्दनासे वाधारहित, अचिन्त्य-माहात्म्य, अतुल, उपमारहित और नित्य सुख भी प्राप्त होता है। जैसे ग्रीष्मके प्रखर सूर्यसे संतप्त हुए जीवको जल और छायामें शान्ति मिलती है, वैसे ही संसारके दुःखोंसे बेचैन प्राणी, भगवान्के चरण-कमलोंमें शान्ति पाता है। तीर्थङ्कर शान्तिनाथकी भक्ति __ शान्त्यष्टकका प्रारम्भ करते हुए आचार्य पूज्यपादने लिखा है, "हे शान्ति जिनेन्द्र ! अनेक शान्त्यर्थी जीव, आपके पाद-पद्मोंका आश्रय लेकर तर गये हैं, उन्होंने शाश्वत मोक्षरूप शान्ति प्राप्त कर ली है । मुझपर भी कृपा-दृष्टि कीजिए, में भक्तिपूर्वक शान्त्यष्टकका पाठ कर रहा हूँ।"
मुनि शोभन ( १०वीं शताब्दी ईसवी ) ने लिखा है कि शान्ति जिनेन्द्रके प्रवचनोंको सुनने मात्रसे यह जीव, शाश्वत शान्ति प्राप्त कर लेता है। आचार्य १ अन्याबाधमचिन्त्यसारमतुलं त्यक्तोपमं शाश्वततं
सौख्यं स्वचरणारविन्दयुगलस्तुत्यैव संप्राप्यते ॥ प्राचार्य पूज्यपाद, संस्कृत शान्तिमफिक : दशमति : शोलापुर, सन्
१९२१ ई०, श्लो० ६, पृ० १७७ । २. न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन्पादद्वयं ते प्रजाः
हेतुस्तत्र विचित्रदुःखनिचयः संसारघोराणवः । अत्यन्तस्फुरदुग्ररश्मिनिकरव्याकीर्णभूमण्डलो प्रेम : कारयतीन्दुपादसलिलच्छायानुरागं रविः ॥ आचार्य पूज्यपाद, संस्कृत शान्तिभक्ति : दशभक्त्यादिसंग्रह : इलो० १,
पृष्ठ १७४। ३. शान्ति शान्तिजिनेन्द्र शान्तमनसस्त्वत्पादपनाश्रयात्
संप्राप्ताः पृथिवीतलेषु बहवः शान्त्यर्थिनः प्राणिनः । कारुण्यान्मम माक्तिकस्य च विमो दृष्टिं प्रसन्नां कुरु स्वत्पादद्वयदैवतस्य गदत: शान्त्यष्टकं भक्तितः ॥ देखिए वही : श्लो० ८, पृ० १७९ । शान्ति वस्तनुतान्मिथोऽनुगमनाद्यन्नैगमायनयरक्षोभं जन ! हेऽतुलां छितमदोदीर्णाङ्गजालं कृतम् । तत्पूज्यैर्जगतां जिनः प्रवचनं इप्यस्कुवाचावली रक्षामअनहेतुलान्छितमदो दीर्णाङ्गजालङ्कृतम् ॥ मुनि शोमन, स्तुतिचतुर्विशतिका, हीरालाल रसिकदास कापडिया सम्पादित, श्रीआगमोदय समिति ग्रन्थोद्धार, ग्रन्थाङ्क ५१, बम्बई, १९२७ ई०, श्लो० ३, पृ. १२ । .