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जैन - भक्तिकान्यकी पृष्ठभूमि
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के टुकड़े में नहीं ।
श्रीजिन समुद्रसूरि ने भी पार्श्वनाथ स्तवन में कहा है, "हे भगवन् ! आपके चरणोंकी सेवाका रसिक मेरा मन अन्यत्र हरादिकमें सन्तोष नहीं प्राप्त कर पाता । कोकिल आम्र-मंजरीको छोड़कर कर्णिकारमें आनन्दका अनुभव नहीं करती।”” अंगों की सार्थकता
यशोविजयने पार्श्वनाथस्तोत्र में लिखा है, "हे भगवन् ! नेत्र वे ही हैं, जो आपकी मूर्तिका अवलोकन करते हैं, मानस वह ही हैं, जो आपका ध्यान करता है । वाणी वह ही है, जो आपको स्तुतिमें तत्पर है, और सिर वह ही है, जो आपके चरणोंमें झुका रहता है । ,, 3 श्रीआनन्दमाणिक्य और श्री
१. ज्ञानं यथा स्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं, ti atarra किरणाकुलेऽपि ॥ तु श्रीमानतुङ्गाचार्य, भक्तामरस्तोत्र : काव्यमाला, सप्तम गुच्छक, निर्णय
सागर प्रेस, बम्बई, २०वाँ श्लोक, पृ० ५ ।
२. स्वत्पादसेवारसिकं मनो में नाऽन्यत्र तोषं लभते हरादौ । विहाय वा मरिमञ्जमानं किं कोकिलः क्रीडति कर्णिकारे ॥
श्री जिनसमुद्रसूरि, पार्श्वनाथस्तवनम् जैनस्तोत्रसंदोह : दूसरा भाग, मुनि चतुरविजय सम्पादित, साराभाई मणिलाल नवाब प्रकाशित, अहमदाबाद, वि० सं० १९९२, १४वाँ इलोक, पृ० १७८ ।
३. लोचने लोचने ह्येते ये त्वन्मूर्तिविलोकिनी ।
यद् ध्यायति त्वां सततं मानसं मानसं च तत् ॥
सती वाणी च सा वाणी या स्वन्नुतिविधायिनी । येन प्रणी स्वत्पादौ मौलिमौलिः स एव हि ॥
यशोविजय, पार्श्वनाथस्तोत्र : ५-६ श्लोक, जैनस्तोत्रसन्दोह : भाग १, चतुरविजयमुनि सम्पादित, अहमदाबाद, वि० सं० १९८९, पृ० ३९३ । ४. वाणी सैव मनोहरा ननु यया त्वं गीयसे नित्यशः,
इलाध्या दृष्टिरियं यया व नितरां स्वं दृश्यसेऽहनिंशम् ।
हस्तः शस्ततरः स एव फलदो यः पूजयेत् त्वां जिनम्, ध्यानं धन्यतमं तदेव सुखदं यस्मिन् प्रमो ! त्वं भवेः ॥ मानन्दमाणिक्य, पार्श्वजिनस्तवनम् : १६वाँ श्लोक, जैन स्तोत्रसन्दोह,
भाग २, पृ० १८५ ।