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चैन के भेद
५- आचार्य - भक्ति
'आचार्य' की व्युत्पत्ति
'आचार्य' शब्द 'चर' धातुसे बना है। 'चर' का अर्थ है चलना अथवा आचरण करना । 'चरेराङि चागुरों' ' से 'आचार्यते आचार्य:' व्युत्पत्ति निष्पन्न होती है । इसका अर्थ है कि आचार्य वह है, जिसके उत्तम चारित्रका अन्य जन अनुकरण करने लगे ।
अमरकोशके अनुसार आचार्य वह है, जो मन्त्रकी व्याख्या करनेवाला, यज्ञमें यजमानको आज्ञा देनेवाला और व्रतोंका धारण करनेवाला हो । जैनाचार्य के ३६ गुणों में महाव्रतों का उत्तम स्थान है। जैनाचार्यका मुख्य गुण मन्त्रकी व्याख्या करना ही है । सर्वज्ञकी वाणी मन्त्र कहलाती है, उसकी व्याख्या करनेका अधिकार केवल आचार्यको ही होता है । अभिधानराजेन्द्रकोशमें आचार्यको नमस्कार
१. वामन जयादित्य, काशिकावृत्ति: एस० मिश्रा सम्पादित, तृतीय संस्करण, बनारस, १९५२ ई०, ४।२।१४ |
२. 'मन्त्रव्याख्याकृदाचार्य आदेष्टा स्वध्वरे व्रती' ।
देखिए अमरसिंह, अमरकोश : संक्षिप्त माहेश्वरी टीका युक्त, आचार्य नारा
३.
राम संशोधित, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, सन् १९४०, १३६०वीं पंति । १२ तप-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, नैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । १० धर्म - उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्यं । ५ आचार -- ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार, वीर्याचार, चारित्राचार । ६ आवश्यक - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव. वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान । ३ गुप्ति - काय गुप्ति, वचनगुप्त और मनोति ।
किशनसिंह, क्रियाकोश जैन पुस्तक भवन, हरीसन रोड, कलकत्ता,
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पृष्ठ १२० ।
४. हिंसा, अनृत, स्तेय, श्रब्रह्म और परिग्रह रूप पाँच पापोंके पूर्ण त्यागको महाव्रत कहते हैं । इस माँति अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत कहलाते हैं ।
देखिए, उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र : चौरासी, मथुरा, ७ १,२, पृ० १५६-१५७१ 'मन्त्रं श्रुतं कृतवान् इति मन्त्रकृत्' से भगवान् जिनेन्द्र मन्त्रकृत् कहलाते हैं । पं० आशाधर, सहस्रनाम : पं० हीरालाल सम्पादित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ५। ६८की स्वोपशवृत्ति पृष्ठ ८८ ।