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जैन-भक्तिके भेद भी स्थापना शुभ तिथि और शुभ मुहूर्तमें करनी चाहिए।" समयसारके प्रसिद्ध टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ( १२वीं शताब्दी विक्रम ) ने अनन्तधर्मके तत्त्वोंको देखनेवाली अनेकान्तमयी मूत्तिको नमस्कार किया है। श्रुतधरोंकी वन्दना - भगवान् महावीरके उपरान्त हुए तीन केवली और पांच श्रुतकेवली श्रुतघर कहलाते हैं । भगवान् महावीरके प्रमुख गणधर गौतम स्वामी भी केवली ही थे। 'चेइयवन्दणमहाभासं' के प्रारम्भमें ही लिखा है, "जिनके महाह्रद रूपी मुखसे, द्वादशाङ्गी महानदी उत्पन्न हुई है, उन गिरि-जैसे गणधरोंको मैं भावपूर्वक नमस्कार करता है।" भगवज्जिनसेनाचार्यने श्रुतके पारगामी गौतम गणधरसे याचना की है कि हम सब अज्ञानान्धकारको भेदकर परं धाममें प्रविष्ट हो जायें। आचार्य शुभचन्द्र ( १३वीं शताब्दी विक्रम ) ने ज्ञानार्णवमें लिखा है, "जो श्रुतस्कन्धरूपी आकाशमें चन्द्रके समान हैं, संयमश्रीको विशेष रूपसे धारण करनेवाले हैं, ऐसे योगीन्द्र इन्द्रभूति गौतमको, मैं ध्यानसिद्धि के लिए नमस्कार
१. बारह अंगंगी जा सणतिलया चरित्तवस्थहरा ।
चौदहपुवाहरणा ठावेयम्वा य सुयदेवी ॥ आचार्य वसुनन्दि, वसुनन्दिश्रावकाचार : पं० हीरालाल जैन सम्पादित,
मारतीय ज्ञानपीठ, काशी, अप्रैल १९५२, ३९१वीं गाथा, पृ० १२३ । २. अनन्तधर्मणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः ।
अनेकान्तमयीमूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥ देखिए, समयसार : श्री पाटनी दि. जैन ग्रन्थमाला, २५ फरवरी १९५३,
श्रीअमृतचन्द्राचार्यका मंगलाचरण, अनुष्टुप् २, पृ० २। ३. जम्मुहमहाहाओ, दुवालसंगी महानई बूढा ।
ते गणहरकुलगिरिणो, सम्बे बंदामि भावेण ॥ श्री शान्तिसूरि, चेड्यबंदणमहामासं : संस्कृतटीकासहित, मुनि श्री चतुर- . विजय और पं० बेचरदास सम्पादित, श्री जैन आत्मानन्द समा, मावनगर,
वि. सं. १९७७, ४थी गाथा, पृ० ।। ४. पारतमः परंधाम प्रवेष्टुमनसो वयम् ।
तदवारोद्घाटनं बीजं स्वामुपास्य लभेमहि ।। भगवजिनसेनाचार्य, महापुराण : माग १, पं० पक्षालाल सम्पादित, हिन्दी मनूदित, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि. सं. २००७, २२६२, पृ. ३५॥