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________________ [१४२] होता हो तो फिर विद्वान लोग अपने तत्वज्ञान से और शास्त्रों के रहस्य ज्ञान से पूर्ण सन्तोष लाभ करते हुए प्रसन्न और सुखी होते हैं सो उस तत्वज्ञानजन्य सुखसे उन तत्वज्ञानी विद्वानों को पापबन्ध होना चाहिये परन्तु यह भी विरुद्ध बात है। क्योंकि जो विद्वान तत्व विचार में निमग्न है। किसी प्रकार का वैर-विरोध, विकार, पर-पीड़ा आदि नहीं कर रहा है, बिना किसी दुर्भाव के वस्तु चिंतन एवं शास्त्राध्ययन में लगा हुआ है और तत्वज्ञानजन्य सन्तोष रूप सुख का अनुभव कर रहा है तो वैसी अवस्था में उसको पापबन्ध क्यों होगा ? अर्थात् नहीं होगा। ___ बस यही इस कारिका का स्पष्ट अर्थ है जो मूल कारिका के पदों से स्पष्ट है। इस कारिका का उक्त यही अर्थ विद्यानन्दि ने अष्टसहस्री में किया है। परन्तु प्रो० सा० ने वीतराग भगवान के संसारी दुख सुख सिद्ध करने के लिये इस कारिका को प्रमाण में लिखा है। इस कारिका से तो वीतराग के सांसारिक सुख-दुख नहीं होते हैं, किन्तु पुण्य-पाप दोनों कर्मों का नाश होता है यह बात सिद्ध होती है। इस कारिका के अर्थ को वे समझ लेते तो फिर यह प्रमाण देकर अपने कथन की स्वयं विरुद्धता उन्हें स्वीकार नहीं करनी पड़ती। उनके इस प्रमाण से विदित होता है कि वे कम से कम प्राप्त मीमांसा को तो प्रमाण मानते हैं। तभी तो यह प्रमाण उन्होंने दिया है परन्तु उनके दिए
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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