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________________ [ १४० ] "निराहारं निरौपम्यं जिनं देवेन्द्रवंदितम्" (सं० २० वि० पृ०१) अर्थात-जिनेन्द्र भगवान श्राहार रहित होते हैं। इस सम्बन्ध में अधिक प्रमाण देना व्यर्थ है। दि० सिद्धान्तानुसार किसी भी दि. जैन शास्त्र से भगवान अहंन्त के पिपासा क्षुधादि की बाधा सिद्ध नहीं हो सकती है। सभी शास्त्र उसके निषेधक हैं। आगे प्रो० सा० ने आप्त-मीमांसा का श्लोक देकर यह सिद्ध करना चाहा है कि भगवान वीतराग होते हैं तो भी उनके सुख और दुःख का सद्भाव होता है। उनकी यह पंक्ति है "दूसरे समन्तभद्र स्वामी ने आप्त-मीमांसा में वीतराग के भी सुख और दुःख का सद्भाव स्वीकार किया है। यथा पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिर्विद्वान् ताभ्यां युञ्जानिमित्ततः ॥ इस आप्त-मीमांसा के प्रमाण को रखकर प्रो० सा० उससे भगवान के सुख और दुःख सिद्ध करने का जो प्रयत्न करते हैं उसे देखकर उनकी विचार-धारा, अन्वेषण-शक्ति, और खयाल पर बहुत भारी आश्चर्य होता है । जो कारिका प्राप्त मीमांसा की उन्होंने प्रमाण में दी है उसका अर्थ ही दसरा है, जो बात वे कहते हैं उसका उससे कोई सम्बन्ध ही
SR No.010088
Book TitleDigambar Jain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages167
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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