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[ १२४] होगा। इसी लिये जहां पर मोहनीय कर्म का मंदोदय हो जाता है एवं तज्जन्य रागद्वेष की मात्रा कम होजाती है वहां वस्तुओं में अथवा इन्द्रिय विषयीभूत पदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि नहीं रहती है वैसी अवस्था में उन वस्तुओं की प्राप्ति अप्राप्ति में मात्मा सुख दुःख भी नहीं मानता है किन्तु समताभाव रहने से माध्यस्थ भाव रहता है।
दूसरी बात यह भी है कि वेदनीय कर्म साता असाता रूप परिणमन करता है। और उसका फल सुख दुःख का अनुभव है। यह सुख दुःख कर्म का ही फल है इस लिये जैसे दुःख सांसारिक है वैसे साता-जन्य सुख भी सांसारिक सुख है यही मानना पड़ेगा। तो यदि भगवान भाईन्त के वेदनीय के उदय से साता के उदय से सुख का सद्भाव माना जाय तो वह सुख सांसारिक होगा, फिर जो अनन्त सुख अन्ति भगवान के माना गया है वह नहीं बनेगा। क्योंकि उस अनंत सुख को सांसारिक सुख से सर्वथा भिन्न आत्मीय सुख माना गया है।
भगवान अर्हन्त के जो अनन्त सुख माना गया है वह सायिक सुख है, जैसा कि
अन्यत्र केवलज्ञानं क्षायिकं दर्शनं सुखम् । वीर्यञ्चेति सुविख्यातं स्यादनंतचतुष्टयम् ।।
(पश्चाध्यायी १५७ पृ०) अर्थात-भगवान अहन्त के क्षायिक ज्ञान, क्षायिक