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आचार्य कहते हैं कि घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने से उनकी सहायता नहीं मिलने से वेदनीय कर्म की साधमर्यं नष्ट हो जाती है ।
इसके आगे राजचार्तिककार ने उदाहरण यह दिया है कि जिस प्रकार विष द्रव्य में मनुष्य को मारने की सामर्थ्य है परन्तु यदि मन्त्र और औषधि का प्रयोग किया जाय तो उस विप में फिर मारने की सामर्थ्य नहीं रहती है। ठीक इसी प्रकार ध्यानाग्नि द्वारा घाति कर्मों का नाश होने से वेदनीय कर्म की सामर्थ्य क्षीण हो जाती है । वह (जली हुई रस्सी के समान) रह जाता है उसमें अपना फल देने की सामर्थ्य नहीं रहती है । केवल द्रव्यकर्म का सद्भाब होने से परीषद का उपचार किया गया है इस राजवार्तिक के कथन से भी वही बात सिद्ध होती है जो सर्वार्थसिद्धिकार ने कही है ।
श्लोक - वार्तिकवार क्या कहते हैं सो जरा ध्यान से पढ़ लीजिये
लेश्यैकदेशयोगस्य सद्भावादुपचर्यते ।
यथा लेश्या जिने तद्वद्वेदनीयस्य तत्वतः ॥ घाति इत्युपचर्यन्ते सत्ता - मात्रालरी पहाः । स्वीतरागस्य यथेति परिनिश्चितम् || न क्षुदादेरभिव्यक्तिस्तत्र तद्धेतुभावतः । योग - शून्ये जिने यद्वदन्यथातिप्रसंगतः ॥ नेक हेतुः क्षुदादीनां व्यक्तौ चेदं प्रतीयते ।