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समझ में नहीं आया और प्रो० सा० की समझ में आगया यह बात वे किस आधार से कहते हैं सो प्रगट करें ? जिससे कि उनके बतलाये गये अभिप्रायको निर्भ्रान्त माना जा सके।
अब आगे हम उनके दिये गये प्रमाण और हेतुओं पर विचार कर उन्हें यह बात सप्रमाण एवं सहेतुक बता देना चाहते हैं कि उनका लिखना सर्वथा निराधार और मिथ्या है। तत्वार्थ सूत्र के वें अध्याय का ११वां सूत्र - " एकादश जिने" है ।
इस सूत्र का अर्थ सर्वार्थसिद्धिकार - आचार्य पूज्यपाद ने इस प्रकार किया है
"निरस्त-घातिकर्म-चतुष्टये जिने वेदनीय सद्भावात् तदाश्रया एकादश परीपहाः सन्ति । ननु मोहनीयोदयसहायाभावात क्षुधादिवेदनाभावे परीषहव्यपदेशो न युक्तः ? सत्यमेवमेतत्वेदनाभावेपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परीषहोपचारः क्रियते” सर्वार्थसिद्धि २८६ - २६० )
इसका अर्थ यह है कि चारों घातिया कर्मों को नष्ट करने वाले जिनेन्द्र भगवान के मोहनीय कर्म नष्ट हो चुका है इस लिये मोहनीय कर्म के उदय की सहायता नहीं मिलने से क्षुधादि वेदना उनके नहीं हो सकती फिर उनके परीषह क्यों बताई गई हैं ? उत्तर में कहा जाता है कि यह बात ठीक है, यद्यपि जिनेन्द्र भगवान के वेदनीय कर्म का सद्भाब होने सेक्षुधा आदि परीषदों का उपचार मात्र किया जाता है 1