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प्रेम-वृत्ति को वैराग्य की विरोधी माना है और वैराग्य-वृत्ति उन्नति कर होने से हमारे कुटुम्ब में रहते हुए भी जान में या अनजान में एक ऐसी वृत्ति का पोषण किया है कि जो वैराग्य-वृति जैसी दीखने पर भी वैराग्य-वृत्ति नहीं, बल्कि प्रेम-प्रतिबन्धक वृत्ति है। इसके परिणाम स्वरूप हम विविध अनर्थकारी भावनाओं का पोषण करते हैं। हम शादी करते हैं और वह भी एक के बाद एक, फिर भी पत्नी पर प्रेम प्रकट करने में शरमाते हैं, प्रत्यक्ष प्रकट न होने देनेका प्रयत्न करते हैं और उसे दबाने के लिए पुरुषार्थ करते हैं । हमें
भाषण
होते हैं, लेकिन उन्हें बचपन में प्रेम से सम्बोधित नहीं कर सकते, प्रेम से हँसा-खिला नहीं सकते, उनपर ममता प्रकट नहीं कर सकते, उनकी बातों में रस नहीं ले सकते। जब वे मौत के पंजे मे आ जाते हैं तभी कही हम अपनी प्रम-वृत्ति पर ढकी हुई शिला को कुछ-कुछ उठने देते हैं और जिस समय धैर्य रखना चाहिए तब धैर्यहीन प्रेम दिखाते हैं। अपने बालकों का विवाह करने का जितना भी उत्साह किसी देश के लोगों में हो सकता है, उनकी अपेक्षा हम अधिक उत्साह से अपने बालकों का विवाह करते हैं । लेकिन उसके बाद बच्चों का कौटुम्बिक सुख या दम्पति का प्रेम-पूर्ण बर्ताव प्रसन्न मन से नहीं देख सकते। इन सब का परिणाम यह होता है कि काम-वासना की पाशविक वृत्ति या संसार का मोह कम नहीं होता । लेकिन भावना-दोन कौटुम्बिक- जंजाल ही बढ़ता जाता है जिसमें न ऐक्य होता है, न सुख, न विकास ।