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बुद्ध और महावीर
(समालोचना) १. जन्म-मरण से मुक्ति : . बुद्ध और महावीर आर्य-संभों की प्रकृति के दो मिन्न स्वरूप हैं। संसार में सुख-दुख का सरको जो अनुभव होता है, वह सत्कर्म और दुष्कर्म के परिणाम स्वरूप ही है, ऐसा स्पष्ट दीख पड़ता है। सुख-दुख के जिन कारणों को देंढा नहीं जा सकता, वे भी किसी काल में हुए को के हो परिणाम हो सकते हैं। मैं नया और न होऊँगा, ऐरा मुझे नहीं लगता । इस पर से इस जन्म के पहले मैं कहीं न कहीं था और मृत्यु के बाद भी मेरा अस्तित्व रहेगा, उस समय भी मैंने कर्म किए ही होंगे और वे ही मेरे जिस जन्म के सुख-दुख के कारण होने चाहिए। घड़ी का लालक जिस तरह दायें-बायें झूलता रहता है, उसो तरह मैं जन्म और मरण के बीच झूलनेवाला जीव हूँ। कर्म को चाबी से इस लोलक को गति मिळती है ओर मिलती रहती है। जब तक चाबी भरी हुई है तब तक मैं इस फेरे से छूट नहीं सकता। अिस जन्म-मरण के फेरे की स्थिति दुःखकारक है। इसमें कभी-कभी सुख का अनुभव होता है, लेकिन वह अत्यंत क्षणिक होता है। इतना ही नहीं, बल्कि वही पुन, भक्षा लगने में कारण रूप बनना है और उसका परिणाम दुःख ही है। मुझे इस दुःख के मार्ग से छूटना ही चाहिए। किसी भी तक इस चाबी को बन्द करना ही चाहिए। इस तरह की विचारमाप