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कानून ( विधि Statute Law) में प्रयुक्त शब्दों का अर्थ तथा उनकी व्याख्या करने में प्रसग, प्रकरण और उद्देश्य आदि का पूरा ध्यान रखना चाहिए यह निर्देश सर्वोच्च न्यायालयों ने बार-बार किया है। जैनागम के इस चर्चित सूत्र की व्याख्या करने मे उपर्युक्त सिद्धान्तों का तनिक भी ध्यान कौशाबीजी ने रखा होता तो वह ऐसा दुर्घट अथवा विकृत अर्थ न करते । देखिए :
भगवान् महावीर- र--स्वय अहिसा के परमोपासक, जिनके जीवन की अनवरत साध ही सर्वांगीण अहिंसा व सर्वभूतेषु दया थी;
श्री सिंह मुनि-सपूर्ण अहिसादि पच महाव्रत के धारक निर्ग्रथ श्रमण जो किसी भी प्राणी को मन-वचन-काया से कष्ट देना भी पाप समझते हैं । किसी सचित्त वस्तु का प्रयोग भी नही करते;
रेवती सेठानी-श्रमणोपासका श्राविका धर्म को सावधानी से पालने वाली, प्राशुक औषधदान से तीर्थकर गोत्र उपार्जन करने वाली ;
तेजोलेश्या से उत्पन्न रोग रक्तपित्त, पित्तज्वर, दाह तथा रक्तातिसार जिनके लिए मुर्गे का मांस महा अपथ्य और सर्वथा 'अनुपयुक्त;
प्रयुक्त शब्द -- वनस्पति विशेष के निर्विवाद सूचक और उनसे तैयार की हुई औषध उक्त रोगो के लिए रामबाण ।
इत्यादि अनेक दृष्टिकोणो से विचार करने पर स्पष्ट है कि कौशांबी ने उत्सूत्र, प्ररूपणा की है ।
कई विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से कौशाबीजी की धारणा को निराधार सिद्ध करने का प्रयास किया है । प० श्री हीरालालजी दूगड़ ने पूरे साधनों के अभाव में भी इस विषय पर गहराई से अध्ययन तथा मनन किया है और सही अर्थ को हर दृष्टि से स्पष्ट करने का सफल प्रयत्न किया है। कई विद्वानो ने इनके इस उद्यम-जन्य विद्वत्तापूर्ण लेख को सराहा है । इसीलिए श्री आत्मानंद जैन महासभा ने इसे पुस्तक रूप में प्रकाशित करने का निश्चय किया और पडित हीरालालजी के महान् परिश्रम को सम्मानपूर्वक पुरस्कृत किया । वह पुरस्कार गत वर्ष अक्षय तृतीया को श्री हस्तिनापुर