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अतः ममतासूत्र के अलावा माचराग, दशर्वकालिक, एवं सूर्यप्रज्ञाप्ति आदि अन्य चैनागमों में आने वाले ऐसे विवादास्पद शब्दों का न भी वनस्पतिपरक तथा पक्वान्न आदि ही निर्बंध आचार-विचारों के साथ प्राचीन वेद तथा प्राचीन जैनादि ग्रन्थों के अनुसार संगत बैठता है, किन्तु मांसपरक सर्वया असंगत है। यदि किसी आधुनिक विद्वान की यह धारणा हो कि इन सूत्रों की रचना के समय रचनाकार को वनस्पतिपरक तथा मासपरक दोनों ही अर्थ अभिप्रेत थे तो उनकी यह धारणा उपर्युक्त उदाहरणों से सर्वथा असत्य ठहरती हैं। दूसरी बात यह है कि कभी भी किसी श्रम निर्ब्रन्थ ने मांसाहार ग्रहण किया होता तो उसका वर्णन जैन अथवा जनेतर साहित्य में अवश्य पाया जाता किन्तु हर्ष का विषय है कि किसी भी जननिर्ग्रन्थभ्रमण ने मांसभक्षण किया हो अथवा मांस- भिक्षा ग्रहण की हो उसका नाम तक किसी भी प्राचीन भारतीय साहित्य में नहीं मिलता।
( ५ ) इतने विवेचन से यह बात फलित होती है कि आधारांग, भगवती, सूर्यप्रज्ञप्ति, दशवेकालिक आदि जैन आगमों का रचनाकाल जब इन विवादास्पद शब्दों का प्रयोग वनस्पतिपरक तथा पक्वान्नों आदि के अर्थ में होता था, उतना प्राचीन है। वह समय ठीक भगवान् महावीर स्वामी का ईसा पूर्व छठी शताब्दी का बैठता है इससे यह स्पष्ट है कि बलभी में देवद्धगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में जिन आगमसमूह को सकलित कर लिपिबद्ध किया गया था वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की वाणी का बिना किसी फेर-फार के संकलन था । जो आज तक श्वेतांबर जैनों के पास सुरक्षित है ।
अतः सुज्ञ विद्वानों को चाहिये कि इन सूत्रपाठों का अर्थ करते समय निर्ग्रन्थ आचार-विचार तथा भगवान् महावीर स्वामी के समय के जो अर्थ प्रचलित थे उन्हीं के अनुकूल अर्थ करे । विपरीतार्थ कर अपनी अज्ञानता का परिचय न दे ।
(६) यदि निर्ग्रन्थपरम्परा में मछली, मांसाहार आदि का प्रचलन होता अथवा जैनागमों में मछली मांसादि के आहार करने का उल्लेख