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'क्षत्रियकुंड वर्धमान-महावीर चन्द्रप्रभा नामक शिविका (पालकी) में बैठकर क्षत्रियकंडग्राम के मध्य से होते हुए नायवनखण्ड उद्यान में आये और वहां पर उन्होंने मुनि-दीक्षा ग्रहण की। उसी दिन एक मुहूर्त (अड़तालीस मिनट) दिन रहते हुए वे कमारग्राम में आए। कुमारग्राम जाने के दो मार्ग थे। एक जलमार्ग दूसरा स्थलमार्ग, वे स्थलमार्ग से गए और वहीं उन्होंने सारी रात ध्यान में बिताई,दूसरे दिन वे कोल्लाग-सन्निवेश में गए और उसी दिन वहां से मोराकसन्निवेश गए कोल्लागसन्निवेश में ज्ञातकुल की पौषधशाला.(धर्माराधन करने का स्थान, विशेष) थी। इस विवरण से पता चलता है कि यहां नायकल के क्षत्रियों का विस्तार था और वे जैनधर्मी थे।
प्राचीन-जैनागम सूत्रों की भौगोलिक अवस्थिति इस प्रकार बतलायी गई है। जम्बद्धीप नामक द्वीप से भारतवर्ष के भरतक्षेत्र के दक्षिणाधं भारत-खंड में दक्षिण दिशा में ब्राह्मणकुंडपुर नगर सन्निवेश था। जैन संकल्पना के अनुसार भरह (भरतक्षेत्र) का विस्तार ५२६ योजन है यह चल्लहेमवन्त के दक्षिण में तथा पूर्वी एवं पश्चिमी सागर के मध्य में है दो बड़ी नदियों गंगा और सिंधु तथा वैताढय पर्वतमाला से छः भागों में विभाजित है। यह सूत्र कुंडपुर के भूगोल की पहचान केलिए अत्यन्त सहायक सिद्ध होता है। इस भौगोलिक विवरण-5 से पता लगता है कि. भरतक्षेत्र चुल्लहेमवन्त के दक्षिण और पूर्वी एवं पश्चिमी सागर के मध्य में था और उस भरत के दक्षिणार्ध में भरतखंड में दक्षिण दिशा में ब्राह्मणकंडपुर सन्निवेश था। ध्यानिय है कि भरतक्षेत्र की विभाजन रेखाओं में गंगा-सिन्धु और वैतादय पर्वतमाला हेमवन्त या हिमालय पर्वत को माना जाता है। इसके द्वारा यह क्षेत्र छः खंडों में विभाजित हो जाता था। अतः ऐसी स्थिति में दक्षिणार्ध-भरतखंड भूभाग ही माना जा सकता है। उत्तर भाग नहीं। 26 इसलिए दक्षिण मंगेर के लच्छआड़ के समीप.का कंडग्राम ही भगवान महावीर का जन्मस्थान है अन्य नहीं। यही कारण है कि श्वेताम्बर जैन परम्परा प्राचीन काल से ही इसी कंडग्राम को भगवान महावीर का जन्मस्थान मानती आ रही है। लेकिन श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं से सर्वथा भिन्न वर्तमान कछ विदेशी प्राविदों एवं उनसे प्रभावित कुछ भारतीय इतिहासकारों के मत मे कि वैशाली ही भगवान महावीर की जन्म और पिताम है। ऐसा होने में कंडग्राम को वैशाली का एक मोहल्ला मान लिया गया है। इस मत की स्थापना के काफी बाद वैशालीसंघ नामक स्थापित संस्था के प्रयासों के फलस्वरूप सर्वप्रथम २१ अप्रैल १९४८ ई. में कुछ जैनों ने वैशाली को जन्मभूमि मानकर वहां भगवान महावीर की पूजा आराधना की। डा. पी. सी. आर. चौधरी का कथन है कि