________________
क्षत्रियकुंड
१९
अनासक्ति रूप मुनि दीक्षा धर्म में अधिष्ठित किया। उन के (Fandament teacings) इस अमूल्य उपदेश का मौलिक रहस्य इस प्रकार था
सव्वे पाणा - पिया उ आ दुक्ख परिकूला अम्पिय वहा । पिय जीवीनो जीवीउ काम सव्वेसिं जीवियं पियं "जातिवाज्जे किंचा।"
(तम्हा)
सारांश यह है कि- प्राणी मात्र को प्राण प्रिय हैं, इसलिए किसी को दुःख मत दो - यानि किसी के जीवन के अधिकारों पर प्रत्याघात न करो। सब सुखपूर्वक जिओ और सब को जीने दो। (Live and let live ) क्योंकि विश्व रचना का नैसर्गिक विधान ही ऐसा है कि बीजानुसार ही फलोत्पत्ति होती है। आम की गुठली से आम और नीम के बीज से नीम की उत्पत्ति होती है। इसी तरह दुःख से दुःख प्राप्त होता है। अतः जहां तक तुम दूसरों के लिये जितने जितने अंश में दुःख के कारण भूत होते हो उतने उतने अंश में तुम्हे भी दुःख भोगना ही पड़ेगा। भगवान महावीर के इस अनुपम उपदेश को एक पाश्चिमात्य तत्ववेत्ता ने इन सुन्दर शब्दों में प्रकट किया है कि- "जब तक तृ दूसरों को दुःख देना चाहता है तब तक दु:ख मुक्त होने की आशा में सुख के स्वप्न देखना निरर्थक है ।" भगवान महावीर का अटल आत्मविश्वास था कि अपने सुख और दुःख का कारण स्वयं आत्मा ही है। वही अपना शत्रु और मित्र है। वही अपना स्वर्ग-नरक है। जन्म-मरण का हेतु भी स्वयं ही है । बन्ध मोक्ष का कारण भी स्वयं है। इसलिये अन्य किसी को दोष देना अज्ञान है। हिंसा, मैथुन, परिग्रह आदि में आसक्त होने से आत्मा का महापतन होता है और अहिंसा, संयम, तप आदि से उस का उत्थान है। यही उत्कष्ठ धर्म है। कहा भी है कि
"धम्मो मंगल मुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नर्मसंति जस्स धम्मो समा मनो ।। " १।। अहिंसा, संयम, तप रूप उतकृष्ट धर्माराधन से आत्मा दवाधिदेव नीर्थकर बन सकता है। रंक से राव बन सकता है तथा प्राणीमात्र का पूजनीय बन सकता है । इसलिये कुल जाति आदि के अभिमान का किसी भी प्राणी के प्रति ग्लानि तथा घृणा करना अनुचित है। प्रत्येक प्राणी शिष्ट पदारूढ हो सकता है, प्रत्येक सच्चरित्र आत्मा केलिये धर्म और भक्ति के द्वार खुले हैं, अंध श्रद्धा से मुक्ति नहीं है। मुक्ति है तत्व चिंतन और परिशीलन में। हिताहित, सत्यामन्य, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय, कृत्याकृत्य और धर्माधर्म इत्यादि सब का विवेक पूर्वक निर्णय करों ।