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केवलज्ञान उन्चास दिनों में प्रतिदिन मात्र एक बार नगर से अथवा ग्राम से लेकर आहार किया। शेष ग्यारह वर्ष सात मास और एक दिन निर्जल निराहार तपस्या में व्यतीत किए। इस तप में कभी कभी लगातार छ: छः मास तक भी निराहार व्यतीत किया।
केवलज्ञान
भगवान महावीर की दीक्षा को तेरहवां वर्ष चल रहा था इस वर्ष में वैशाख सदी दसमी को दिन के पिछले पहर में ऋजकला नदी के तट पर जम्भक ग्राम के बाहर श्यामक नामक कौटुम्बिक के खेत में साल वृक्ष के नीचे (उत्कंट) आसन में बैठे हए ध्यानास्थ-मुद्रा में उन्हें केवल-ज्ञान केवल-दर्शन पैदा हआ। इस केवल-ज्ञान का स्वरूप यदि हम सरलता से समझने का प्रयत्न करें। तो यह था कि जीवन और सष्टि के सम्बन्ध में जो समस्याएं है और जो प्रश्न जिज्ञास चिन्तक के हृदय में उठा करते हैं। उनका उन्हें सन्तोष कारक रीति से समाधान मिल गया। समाधान यह था कि छ: द्रव्य और नौ तत्व (जीव के बन्धन और मुक्ति के उपाय) है। जिनके द्वारा त्रैलोक्य की समस्त वस्तुओं का स्वरूप समझने में आ जाता है। वे छ: द्रव्य यह हैं जीव, पुद्गल, धर्म-अधर्म, आकाश और काल। नव तत्व इस प्रकार हैं- जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इनके साथ पुण्य-पाप मिलाने से नवतत्व हो जाते हैं। जीवन का मूलाधार जीव है यह आत्मा द्रव्य है जो जड़ पदार्थों से भिन्न है। जीव आत्म-संवेदन तथा परपदारथ बोधरूप लक्षणों से युक्त है एव अमूर्त और शाश्वत है। परन्तु वह जड़ द्रव्यों से संगठित शरीर में व्याप्त होकर नाना रूप रूपान्तरों में गमन करता है। जितने मूर्त रूप ग्राह्य पदार्थ परमाणु से लेकर महास्कन्ध हमें दिखाई देते (इन्द्रिय जन्य) हैं वे सब अजीव उद्गल के रूप रूपान्तर हैं। धर्म और अधर्म ऐसे सूक्ष्म अदृश्य अमूर्त द्रव्य हैं जो लोकाकाश में व्याप्त हैं जो जीव और पद्गल पदार्थों को गमन अथवा स्थिर होने में हेतुभूत माध्यम हैं। आकाश वह द्रव्य है जो अन्य सब द्रव्यों को स्थान व अवकाश देता है। काल द्रव्य वस्तुओं को रहने, परवर्तित होने तथा पूर्व और पश्चात् की बुद्धि उत्पन्न करने में सहायक होता है। यह तो सृष्टि के द्रव्यों की व्याख्या हुई। किन्तु जीव की सुख-दुखात्मक सांसारिक अवस्थाओं को समझने और उसके ग्रन्थी को सुलझाकर आत्मतत्व के शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वरूप के विकास हेतु अन्य सात अथवा नौ तत्वों को समझने की आवश्यकता है जीव और अजीव तो सृष्टि के मल तत्व हैं ही। उनका परस्पर