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(XVII)
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परमार क्षत्रियोद्धारक प. पू. जैनाचार्य श्रीमद् विजय इन्द्रदिन्न सूरीश्वर जी म०.
जीवन परिचय
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आध्यात्मिक सुषमा केन्द्र, जन-मन मोहक मोहन प. पू. आचार्य श्रीमद् विजय इन्द्र दिन्न सरीश्वर जी महाराज साहब का जन्म विक्रम सम्बत १९८० कार्तिक वदी ९ को बड़ौदा के सालपुरा ग्राम में हुआ। संस्कार बारम्भ में उपलब्ध वातावरण, पारिवारिक परम्परा और आचरण पर आधारित होते हैं। गुरु इन्द्र का आज का महान व्यक्तित्व शैशव काल में ही मिले धार्मिक विशुद्ध शाकाहारी, अहिंसावादी पारिवारिक वातावरण से प्रारम्भ हुआ। साधु संतों का समागम उनका उपदेश श्रवण मन में वैराग्य भाव पैदा करने लगा। फलतः सं. १९९८ फाल्गुन शुक्ला पन्चमी को मुनिराज श्री विनय विजय जी म. सा. के कर कमलों द्वारा बाप श्री ने भागवती दीक्षा ले ली।
युग द्रष्टा पंजाब केसरी पं. प. विजयवल्लभ सूरीश्वर जी महाराज साहब का सखद साम्निध्य आपकी अन्तर्निहित सौम्यता परमार्थ प्रेम व चारित्रिक गरिमा को द्विगणित करने वाला सिद्ध हवा। आप श्रीको वि.सं. २०११ चैत्र वदी३ को सरत में गणितवर्य पद का सम्मान मिला और आपके सद्गुणों से प्रभावित होकर वि.सं. २०२७ माघ शुक्ला पञ्चमी को बरेली में वहां के नूतन मंदिर के प्रतिष्ठा महोत्सव पर पं.पू. आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय समुद्र सूरीश्वर जी म. सा. ने आपको आचार्यपद से अलंकृत किया।
आप श्री ने मानव मात्र को उदारता व सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने वाले श्री महावीर स्वामी का संदेश मात्र जैन बुधबों तक ही नहीं पहुंचाया अपितु नेतरों तक पहुंचाया और उन्हें प्रभावित किया। गुजरात के परमार अत्रिय बापश्री के प्रवचनों से इतने प्रभावित हुए कि वे गुरुदेव के अनन्य भक्त बन गए। ५०,००० चैनेतर परमार क्षत्रियों ने बड़े ही धूमधाम के साथ सोत्साह जैनधर्म अंगीकार किया। कितने तो जैन श्रावक श्राविका धर्म को अंगीकार कर सन्तुष्ट नहीं हुए अपितु जैन मुनि बन गए। जैन इतिहास की यह अभूतपूर्व घटना स्वयं में स बात का प्रमाण है कि बाप श्री के प्रवचन कितने प्रभावशाली हैं और भटके हुओं को राह दिखाने वाले हैं। आप श्री की वाणी में दर्शन, न्याय, साहित्य, व्याकरण बागम आदि विषयों का महरा अध्ययन व पान्त्यि स्पष्ट झलकता है।