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अत्रियकुंड इसने अपना मध्यममार्ग का पंथ स्थापित किया जो आज विश्व में बुद्धधर्म के नाम से विख्यात है।
महाराजा चेटक बाद में भगवान महावीर का अनुयायी होकर दृढ़ जैनधर्मी परमार्हत श्रावक बना।
भारत में उस समय अनेक गणतंत्र राज्य थे। परन्तु बैशाली राज्य का इतिहास तथा कार्यप्रणाली का विस्तृत वर्णन ग्रंथों से मिलता है। संभवतः इसी कारण से श्री जैसवाल ने इस गणतंत्र को विवरणयुक्त गणराज्य Recorded Republic) शब्द से संबोधित किया है। क्योंकि अधिकांश गणराज्यों का अनुमान कुछ सिक्कों या मुद्राओं से अथवा पाणनीय-व्याकरण के कुछ सूत्रों से या कछ ग्रंथों में उपलब्ध संकेतों से किया गया है। इसी कारणं विद्वान लेखक ने इसे प्राचीनतम गणतंत्र घोषित किया है। जिसके लिखित साक्ष्य हमें प्राप्त हैं और जिसकी कार्यप्रणाली की झांकी हमें बुद्ध के अनेक संवादों से मिलती है।
बज्जि (वृजि) एक महासंघ का नाम है। जिसके अंग थे- १. मातृक २. विदेह ३. लिच्छिवी ४. वृजि ५. उग्र ६. भोग ७. कौरव एवं ८. इक्ष्वाक इनमें से मुख्य थे वृजि और लिच्छिवी। बुद्ध दर्शन और भारतीय-भूगोल के अधिकारी विद्वान श्री भरतसिंह उपाध्याय ने अपने ग्रंथ बुद्धकालीन भारतीय भूगोल पृष्ठ ३८३-८४ में अपना मत प्रकट किया है कि वस्तुतः लिच्छिवियों और वज्जियों में भेद करना कठिन है। क्योंकि वज्जि न केवल एक जाति के थे परन्तु लिच्छिवी आदि गणतंत्रों को मिलाकर उनका सामान्य अभिधान वज्जि था। वज्जि आयों के छः कुल थे। यथा- १. उग्र २. भोग ३. राजिन्य ४. श्वाकु ५. भातृ और. ६. कौरव अर्थात् वज्जि महासंघ के आठ अंगों एवं बायों के छह कुलों पर विचार करने से भी ज्ञात होता है कि १. उग्र २. भोग ३. मातृक४.कौरव तथा ५. ईक्ष्वाकु नाम दोनों में हैं परन्तु विदेह, लिच्छिवी और बज्जि इन तीनों अंगों का राजन्य में समुचय , रूप से स्वीकार किया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि लिच्छिवी जाति के राजा चेटक और मातृ जाति के राजा सिद्धार्थ (महावीर के पिता) भिन्न-भिन्न क्षत्रिय जातियों के थे।
परन्तु अलग जाति के रूप में वज्जियों का उल्लेख पाणिनी ने किया है और कोटिल्य ने भी जातकों को लिच्छिवियों से बलग माना है। सुषांगयांग (पीनी बौद्ययात्री) ने भी वज्जि देश और वैशाली में भेद किया है। उसने लिच्छिवियों को व्रात्य लिखा है। हम लिख बाए हैं कि बात्य जैन धर्मानुयायियों को कहा जाता था।