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अत्रिय
कतिपय विद्वानों ने उक्त श्रमण या जैनसंस्कृति और इसके धर्म को मगधसंस्कृति और मगधधर्म भी नाम दिये हैं।
श्रमण परम्परा एवं मगध जैनधर्म के अतिप्राचीन अर्द्धमागधी भाषा के आचारांग आदि आगमों में मगह (मगध) का उल्लेख है। प्रजापना सूत्र (१ पद) सूत्रकृतांग और स्थानांगसूत्र में मगह को राजगही का आर्य जनपद कहा है। आचारांगसूत्र में मगह और राजगृही का उल्लेख है। एक समय में तीर्थंकर महावीर साकेत में धर्मप्रचार कर रहे थे तो उन्होंने कहा कि जैनों का चरित्र और ज्ञान मगध और विदेह में अक्षण्ण रह सकता है। इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि श्रमण संस्कृति में मगध को पवित्र माना है उसे आर्यश्रेष्ठ लोगों का जनपद कहा गया है। मगध में जैन ज्ञान
और आचार की रक्षा मानी है। उस समय मगध खूब उत्कर्ष में था और आर्य राज्यों और उपनिवेशों की स्थापनाएं भी हो चकी थीं। मशासन और सव्यवस्था से चोर-डाकुओं से सुरक्षित और सामाजिक आचार की मविधा थी। __हम लिख आए हैं कि अथर्ववेद में व्रात्यों का प्रियधाम प्राचीदिशा को बताया है। वहां मगध का संकेत है। जैन श्रमण संस्कृति में व्रत धारक को वान्य कहा है। जैन निग्रंथ व्रात्य थे। तपस्या से आत्मशोधन में विश्वास रखते थे। इसलिए उन्हें व्रात्य कहा गया है। ये व्रात्य मगध के अतिरिक्त भारतवर्ष के अन्य भागों में भी रहते थे तथा भारतवर्ष के बाहर के देशों में भी रहते थे।
वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम प्रस्तोता आदिदेव ऋपभ थे। जो स्वयंभ, महादेव. ब्रह्मा और प्रजापति कहलाये। ऋग्वेद के कई मत्रों में उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष उल्लेख हैं। सिंधघाटी की सभ्यता के अवशेषों में उस यग में उनकी पूजा के प्रचलन के संकेत पाए जाते हैं। उनका च्यवन (गभांवतरण). जन्म, दीक्षा अयोध्या में, केवलज्ञान प्रयाग में. मोक्ष (निवाण). कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर हुआ। परन्त उनका विहार प्राच्यखंड में भी हआ था। वे चौबीस तीर्थंकरों में से प्रथम थे। बाइमवें तीर्थंकर अरिष्टनेमिका निवांण उज्जयंत (गिरनार) पर्वत पर सौराष्ट्र में हआ था। शेप वाइम तीथंकरों का निर्वाण विहार प्रांत में ही हआ। जिनमें से १२वें तीर्थकर वामपज्य का निवांण चंपा (अंग' जनपद) में और अन्तिम तीर्थकर महावीर का निवांण पावापरी (मगध जनपद) में शेष बीस का सम्मेशिखर पर्वत (पाश्वनाथ पवंत) पर निर्वाण (मगध जनपद में) हुआ।