________________
क्षत्रियकंड
१३९ ४. शतपथ ब्राह्मण, (१।४।१०) में मागधों को ब्राह्मण या वेदधर्म के बाहर बताया गया है।
५. कात्यायन (२२।४।२२) और लास्यायन (८।६।२८) के श्रौत सत्रों में कहा गया है कि व्रात्यधन या तो पतित ब्राह्मण को अथवा मगध के ब्राह्मणों को दिया जाय।
६. मनस्मति आदि अनेक ब्राह्मणीय गंथों में स्पष्ट लिखा है कि गांधार (भारत का उत्तर-पश्चिमी) सीमाप्रान्त, मध्यप्रदेश (मंजवन-अंग और मगध) को वैदिकआर्य पाप भूमि कहते हैं और इन जनपदों में आने-जाने का निषेध करते थे। यहां तक कह दिया गया था कि काशी में कोई कौवआ भी मरे तो सीधा वैकंठ जाय और यदि (मगध) में मनुष्य भी मरे तो गधे की योनी में जन्म लेता है। मगधवासियों को अपज्वयन, अकर्म, अन्यव्रत, देर्वापय आदि अपशब्दों से संबोधित किया जाता था। वहां के क्षत्रियों को घणापर्वक व्रात्य त्रिय, दास, त्रियवंध, वृषल आदि संज्ञायें दी जाती थीं। मध्यप्रदेशीय वेदिकआर्य उन्हें बहत ही नीच समझते थे। इतना ही नहीं, मगध के ब्राह्मणों को भी पश्चिमी-ब्राह्मणों की अपेक्षा इन्हें अतिनिम्न कोटि का समझा जाता था। उनके विषय में धारणा थी कि ये लोग वेद और वेदानमोदित याग-यज्ञ एव कर्मकांडो को महज ही छोड़ देते हैं।
श्रमण संस्कृति का केन्द्र मगध उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत के प्राचीन सप्तखंडों में से प्राच्यखंड से सचित भूभाग जिस में मगध और उसके पडोसी विदेह, अंग. बंग. कलिंग तथा गांधार आदि जनपद जो उस समय विद्यमान थे. वे वैदिक आर्यो की सभ्यता. संस्कृति और धर्म से बहत पीछे के ममय तक अछता रहते आये थे। न केवल यहां के निवासी वैदिकआर्य ब्राह्मण एवं क्षत्रियों की मंति नहीं थे परन्त वे वातशना, मनि, अर्हत, व्रात्य, निग्रंथ, श्रमण, तीर्थंकरों की परंपरा के उपासक तथा अनुयायी थे। जो इतिहासातीत ही नही अनुमानातीत-काल मे यहां रहते आए हैं। उनकी सम्यता भी नाग, यक्ष, वज्जि, लिच्छवी, ज्ञातृक. झल्ल, मल्ल, मोरिय, कोलिय, भंगी आदि अनार्य-अवैदिक तत्वों द्वारा संपोपित एवं पल्लवित हुई थी। जो ज्ञान, विज्ञान कला. कौशल. शिल्पादि की दृष्टि मे वैदिक आर्य सभ्यता की अपेक्षा श्रेष्ठतम एवं नागरिक सभ्यता महाउत्कृष्ट थी। चिरकाल तक नाग जाति का प्राधान्य रहने के कारण यह नाग सपता भी