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यात्री-यात्रीमध तिहां थी आविया क्षत्रियकंड वीर जी वन्दू माहलकंड।
च्यवन-जन्म वीर ना अहिठाण पावापुरी पामया निर्वाण।। इस में क्षत्रियकंड के च्यवन-जन्म कल्याणक मंदिरों को वन्दना करने का और पावापुरी में भगवान महावीर के निर्वाण का वर्णन है। १२. तपागच्छीय मनिश्री विजयसागर कृत
सम्मेतशिखर तीर्थमाला वि. सं. १६४८ चैत्रशुक्ला त्रयोदशी (भगवान महावीर के जन्म कल्याणक) को आगरा (उत्तर प्रदेश) का यात्रासंघ क्षत्रियकं पहुंचा-मुनि श्री ने इमका वर्णन इसप्रकार है।
खांतिखरी खत्रीयकंड नो जाणी जन्म कल्याण हो वीरजी। चैत्रशक्ल तेरसी दिने यात्रा चढ़ी सप्रमाण हो वीरजी ।।खां०।।१।। मास बर्मति वन विस्तरइ मलयाचल ना वाय हो वीरजी। वण-गजी फली भली परिमल पहवी न माय हो वीरजी।।२।। मोअग्यि मचकंद 'मोगरा मरुआ मंजरी-वंत हो वीरजी। 'बउलसिरि वली पाडली भंग-युगल विलसंत हो वीरजी।। खां।।३।। कसमकली मनि मोकली विमणा दमणा नी जोड़ी हो वीरजी। तलहटीइ दोय देहरा पूजी जिन मनि कोड़ी हो वीरजी ।।खा।।४।। सिद्धारथ घर गिरि-शिरि तिहां वंद एक बिंब हो वीरजी। बिहं कोशे ब्राह्मणकंड छइ के वीरह मूल-कुटुंब हो वीरजी ।।खां०
-11५।। पजिय गिरि थकी उतर्या गामि कमारिय हो वीरजी। प्रथम परिषह चउतरई बंद्या वीर ना पाय हो वीरजी।।खां०।।६।।
इम तीर्थमाला में पवंत की तलहटी में (१) प्रभ महावीर के दो जैनमंदिर (२) जन्मस्थान में एक मंदिर (३) पर्वतशिखर पर राजा सिद्धार्थ का राजमहल था। मघ ने वहां एक जिन बिंब की पूजा की। यहां से दो मील ब्राह्मणकुंड जाकर जहा प्रभु महावीर का मूल (ब्राह्मण ऋषभदत्त और उसकी भार्या देवानदा जिसके गर्भ में प्रभु प्रथम आए थे) परिवार रहता था। वहां के जिनदिर में पूजा करके संघ पर्वत से नीचे उत्तरा और (४) कुमारग्राम में पहंचा। वहां चबूतरे पर भगवान महावीर के चरणों की पूजा की यहीं पर प्रभु को ग्वाले ने प्रथम उपसर्ग किया था।