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अत्रियकुंड करने केलिये एक सबल आंधार मिल जाता है। लेकिन अन्ततः यह आधार भी खोखला सिद्ध हो जाता है। जैनसूत्रों में भगवान महावीर के नाम केलिये प्राकृत में नाथ, गाय और नायपुत्त का प्रयोग हुआ है, एवं पालिग्रंथों में नातपुत्त का। संस्कृत ज्ञात के प्राकृत णाय, नाय और नात पाये जाते हैं। इसलिये जैनसूत्रों के टीकाकार ने प्राकृत नाय के लिये संस्कृत में सात और ज्ञातृ शब्दों को स्वीकार कर लिया है। इन संस्कृत शब्दों के कारण भी अटकलपच्चियां और प्रांतियां फैली हैं। इस संदर्भ में आचार्य तुलीस और मुनि नवमल की धारणा सर्वाधिक विचारणीय हैं। उनका कहना है कि "प्रतीत होता है कि ज्ञात और जात-ये दोनों यथार्थ नहीं हैं। भगवान का कुल नाम होना चाहिए णायपुत्त की संस्कृत छाया नागपुत्र भी हो सकती है। चूर्णियां प्राकृत में हैं, इन में नाय या णात ही मिलता है। क्वचित ज्ञात भी मिलता है। टीकाकाल में यह भ्रम पुष्ट हुआ है। अधिकांश टीकाकारों का ध्यान ज्ञात शब्द की ओर गया है। हमारी जानकारी में उभयदेव सूरि ही पहले टीकाकार हैं। जिन्होने नाय शब्द का अर्थ नाग भी किया है। उन्होंने औपपाकिसूत्र सूत्र १४ की वृत्ति ने नाय का अर्थ ज्ञात (इक्ष्वाकुवंश का एक भेद) अथवा नाग (नागवंशी) किया है। इसी आगम के सूत्र २७ वें की वृत्ति में उन्होंने नाग का अर्थ नागवंशी और गौण रूप से ज्ञातवंशी किया है। इसी आगम् के सूत्र २७ में वृत्ति में उन्होंने नागवंशी किया है। सूत्रकृतांग (२।१।९) में इक्खाग, इक्खागपुत्ता, नाया, नायपुत्ता, कोरुव्वा, कौरव्वपुता यह पाठ है। इस सूत्र के पाठ संशोधन केलिये हम जिन दो हस्तलिखित प्रतियों का अवलोकन कर रहे हैं उनमें एक प्रति जो वि.सं.१५८१ में लिखी है उसमें नाया-नायपत्ता के स्थान में नाग-नागपुत्ता पाठ हैं। इतिहास में ज्ञात नाम का कोई प्रसिद्ध वंश हो पढ़ने-सुनने में नहीं आया।
जैनागमों में भगवान महावीर केलिये नाय, गाय, नात शब्दों का प्रयोग हुआ है और बौद्धग्रंथों में नात-नाथ शब्दों का प्रयोग हुआ है। पालिभाषा में नाय, णाय शब्दों का प्रयोग नहीं है। नाय, णाय का संस्कृत में अर्थ ज्ञात, ज्ञात. नाग ये तीनों रूप होते हैं और नात. नाथ का संस्कृत में नाग रूप नहीं बनता। नात, नाथ के संस्कृत रूप ज्ञात, ज्ञात ही होते हैं, नाग नहीं। इसलिये भगवान महावीर का पितृकुल ज्ञात-ज्ञातृ ही होना चाहिए।
अब हम भगवान महावीर के जन्मस्थान के लिये निर्दिष्ट साहित्य की दृष्टि से परीक्षण