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________________ किरण १] कतिपय मधुर संस्मरण एकान्त से अधिक प्रेम था । एक दिन प्रातः काल सूर्योदय होने के कुछ समय बाद तक आपका शयन गृह बन्द रहा। घरवालों को इमसे चिन्ता हो गयी और कारण ज्ञात करने के लिये चेष्टा करने लगे। दम्मे की बीमारी के कारण यदा कदा श्राप का स्वास्थ्य खराब हो जाता था; अतः स्वास्थ्य खराबी की आशंका से सभी लोग चिन्तित हो गये और किवाड़ के झरोखे से झाँककर देखने लगे। लोगों ने देखा कि अध्यात्म प्रेमी बाबूजी समस्त वस्त्रों का त्याग कर दिगम्बर मुद्रा में खड़े होकर सामायिक कर रहे हैं। बाबूजी के इस कृत्य से सभी लोग आश्चर्य में डूब गये और बड़े-बूढ़ों को प्रात्मग्लानि भी हुई। सोचने लगे कि एक युवक इस प्रकार तपश्वरण करे और सब लोग इस अवस्था में भी आत्मशोधन से विमुख रहें, यह कितने परितार का विषय है। सामायिक समाप्त कर बाबूजी कमरे से बाहर आये और नित्यकर्म से निवृत्त हो पूजन-पाठ में लग गये। जब जलपान करने के उपरान्त लोगों ने उनसे पूछा कि आप अभी से इस प्रकार सामायिक क्यों करते हैं ? श्री बाबू बन्चू नालजी ने हँसकर दो-चार कडुबो-मीठी बातें भी सुनायी। इस पर बाबूजी ने कहा कि इस नश्वर संसार में पानी पर्याय का क्या विश्वास ? गृह-कार्यों को अनासक्त भाव से करते हुए प्रात्मशोधन के लिये सर्वदा तत्पर रहना चाहिये। उन्होंने आत्मविश्वास पूर्वक कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को होश संभालने के क्षण से लेकर मृत्यु के क्षण पर्यन्त सर्वदा सावधान रहना चाहिये। अन्तकान तभी सुबर सकता है, जब प.ले से अभ्यास रहे। मेरी अान्तरिक प्रेरणा सदैव प्रात्मशोधन के लिये प्रेरित करती रहती है। मेरा हृदय सतत कहता रहता है कि पौराणिक कथाओं में प्रतिपादित पात्र जिस प्रकार मेकाछन्न आकाश, प्रकाशहीन सायंकाल, च चल रवन आदि के चांवल्प से विरक्ति की प्रेरणा प्राप्त करते रहते थे, उसी प्रकार इस मनोरम प्रकृति से अपने कल्याण की प्रेरणा क्यों नहीं प्राप्त करूं। इस बाटिका में जब से मैं आया हूँ, मेरी सामायिक की क्रिया अबाध गति से निरन्तराय चल रही है, मुझे इसमें जो प्रानन्द पा रहा है, उसका मैं विवे वन करने में अमर्थ हूँ। इस तपोवन सदृश बाटिका में तीनों काल श्रात्म-शोधन और इन्द्रिय नियन्त्रण के लिये मैं सामायिक करता हूँ। मैं इसमें अपने जीवन का प्रत्यावलोकन करता हूँ, अतीत जीवन को दुहराता रहता हूँ। जीवन-यात्रा के अन्तिम विराम-स्थल-पड़ाव पर पहुंचने के पूर्व मैं पीचे देखता हूँ कि कहाँ से चलकर किधर-किश्वर भूल भटक कर आया हूँ। कहीं मेरी यह यात्रा, जीवन पथ के पहाड, तराइयाँ, नदी-नाले, झाड़-झंखाड़ और आँधो-पानी के कारण अधिक लम्बी न हो जाय; और गन्तव्य स्थान को मैं विलम्ब से प्राप्त कर सकूँ अथवा मार्ग भूलकर इधर-उधर मारा-मारा घूमता फिरूं। अतएव मैं सर्वदा जीवन यात्रा के पाथेय-सामायिक को ग्रहण कर निराकुल रूप से इस दुर्गम पथ को तय करना चाहता हूँ।
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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