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________________ भास्कर (भाग १८ -यदि महासभा कोई उपदेशक इस डूबती हुई जाति के उद्धारार्थ मेज दे तो इसके व्यय श्रादि का प्रबन्ध 'जैन यंगमेन्स एसोसियेशन' की धारा ब्रान्च करने को तैयार हैं। कहना नहीं होगा कि यह प्रबन्ध पूर्णतः कुमार जी की व्यक्तिगत उदारता पर निर्भर था। जैन-जाति और जैन-धर्म के पुनरुद्धारक कुमार जी को हम अपने युग के प्रगतिशील साहित्यनिर्माता के रूप में भी पाते हैं। इनके द्वारा संपादित "जैन गजट' केवल एक सांप्रदायिक वर्ग का पत्र नहीं था, इसमें हमें उस युग की प्रत्येक हलचल का परिचय मिल जाता है। देश-विदेश के समाचार, राष्ट्रीय आर्थिक समस्याओं पर विचार विनिमय, साहित्यिक लेख और राजनैतिक महत्व के विषय भी इसमें यथोचित स्थान पाते थे। यही कारण है कि इनके प्रबन्ध में आने के पश्चात् शीघ्र ही यह पत्र इतना प्रसिद्ध हो गया कि इसे पाक्षिक से साप्ताहिक कर देना पड़ा। हिन्दी-प्रचार में सक्रिय भाग लेते रहने के कारण ही संवत् १९६२ में 'पारा नागरी प्रचारिणी सभा' का प्रथम अधिवेशन इन्हीं के सभापतित्व में मनाया गया। कुमार जी स्वयं अपने युग के प्रसिद्ध लेखकों में स्थान रखने की क्षमता रखते थे। इनकी भाषा प्रचलित उर्दू शब्दों से समन्वित शुद्ध हिन्दी होती थी। यद्यपि कहीं कहीं व्याकरण की भूलें भी मिल जाती हैं परन्तु उस युग में जब द्विवेदी जी का लौह-पंजा अभी भाषा के परिष्करण की ओर झुका ही था, इसपर अधिक ध्यान नहीं दिया जा सकता। उनकी लेखनी से प्रसूत परिमार्जित अलंकारमयी भाषा में एक गुम्फित वाक्य का उद्धरण उनकी शैली को समझने के लिए पर्याप्त होगाः___ "हम विशेष न लिखकर अपने विचारवान भाइयों से प्रार्थी हैं कि वे इस परम धार्मिक कार्य को विशेष उत्तेजना के साथ चलाने के लिए अवश्य अपने अपने नगर में आगामी वर्ष अधिवेशन की अनुमतो का पत्र द्वारा व स्वयं दो चार प्रतिनिधियों को सभा में मेजकर अपने हौसले का फूल खिला देंगे जिसमें दर्शकों का मन आनन्द से भर जाय और कार्य कर्ताओं को उस फूल की सुगम्धि विशेष रूप से प्राप्त हो जाय जिसमें उनके मस्तिष्क एक बड़ी भारी शक्तिके साथ महासभा की सेवा में लवलीन हो सकें।" एक रथ यात्रा के वर्णन में उनकी निरीक्षण शक्ति और वर्णन शैली का स्वरूप मिलता है "भंडियों की बहार और बाजों की ध्वनि मानो पुकार २ कर दूर २ से धर्म के प्रेमियों को बुला रही है और यह सूचित कर रही है कि यदि संसार के दुःखों से बचना है तो श्री वीतराग भगवान की सवारी का दर्शन करो और उनके उपदेशों को भजनों के द्वारा सुनकर चित्त में विराजमान कर लो। इतने में भी अरहन्त देव की शुक्ल पाषाणमयी मूर्ति एक बहुत बड़े सुवर्ण के रये पर विराजमान दर्शित हो रही हैं।" सूक्ष्म अनुभूति, कल्पना और अभिव्यक्ति की वक्रता इत्यादि साहित्य के सभी प्रधान गुण उपयुक्त पंक्तियों में वर्तमान है।
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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