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________________ [ भाग १८ सुन्दर वस्त्रों से आच्छादन करने में, पैरों को विज्ञायती बहुमूल्य चर्म- पादुकानों से सुशोभित करने मैं, खानपान में भक्ष्य भक्ष्य का विचार छोड़ खड़े बैठे व सोये जो कुछ भी श्राया खा लेने में, पनी बाहरी चालढाल की चमक दिखला जगत के मानवों में 'चतुर' कहलाने की चतुराई करने मैं तथा अपने स्वार्थ के सम्मुख पर के न्याययुक्त अर्थ को भी अपने सहस्रशः उद्यम के बल से दूर कर देने में अपना गौरव समझते हैं *** भास्कर पाश्चात्य जगत की इस भोगवादी, उच्छं, खल, बाह्याचं वरयुक्त और स्वार्थमयी प्रवृत्ति ने ही हमारे देश की सुख-समृद्धि को नष्ट कर दिया है। इसका प्रभाव दूर करने के लिए त्यागमयी, संगत, श्रात्मविकासयुक्त और परमार्थमयी जैन संस्कृति का प्रसार ही एकमात्र उपचार है। कुमार जैन-संस्कृति का प्रचार करने के लिए देश में ऐसे उपदेशकों का जाल बिछा देना चाहते थे जो देशी और विदेशी भाषाओं को जानते हों, प्रचलित हिन्दी में सुन्दर भाषण कर सकते हों, संस्कृत के धर्म ग्रन्थों से पूर्णतः परिचित हों, और सभी धर्मो के मून तत्वों को हृदयङ्गम किये हो । वर्तमान वस्तुवादी भावधारा कुछ आध्यात्मिक मुनियों के उपदेशों से दूर नहीं हो सकती । ये नवीन उपदेशक देशकाल के अनुसार व्यावहारिक उपदेश देकर जनता में धर्म का सम्यक् प्रचार कर सकेंगे । कुमार जी इनका वेतन भोगी होना श्रावश्यक समझते थे । स्पष्ट है कि ये जैनसंस्कृति को कुछ अन्धभक्तों की दिखावटी श्रद्धा का विषय बनाना नहीं चाहते थे, बल्कि उसे युग की समस्यावों का समाधान करने वाला महान् साधक बनाना चाहते थे । खेद है कि इस प्रकार की योजना तक सफलता पूर्वक कार्य्य नहीं कर सकी, केवल इसलिए कि हमारे पूंजीवादी जैन समाज ने इसमें मुनाफे की कोई गुंजाइश नहीं देखी। इसके सामने तो परोपकार और धर्म प्रदर्शन के कुछ सधे सधाये नुम्खे तैयार हैं। परिणाम है कि एक और संपत्ति और शोषण के बल पर एक जनवर्ग देश की समृद्धि बढ़ाने वाले उत्पादन काय्य से विरत रहकर केवल उपभोग को ही जीवन का लक्ष्य बना रहा है और दूसरी ओर साधन और अवसर से वंचित विशाल जनवर्ग भिक्षावृत्ति के द्वारा पेट पालने में ही जीवन की सार्थकता मान बैठा है । उत्पादन के बिना उपभोग देश को निर्धन बनाता जा रहा है। इस सम्बन्ध में कुमार जी के शब्द आज भी विचारणीय हैं : "खेद की बात है कि हमारे भारत में भी लाखों ऐसे भिखमंगे बच्चे घूमा करते हैं जिनको हमलोग पैसे दे दे कर हमेशा के लिए भिखारी तथा बदमाश बना देते हैं। क्या अच्छा हो यदि कोई परोपकारी इन सबको यथोचित शिक्षा दिलाने के लिए आश्रमों का यत्न करे और तब कोई किसी बच्चे को पैसा आदि बिना काम लिये न देवे । क्या यह कार्य देश सुधार की श्रेणी में गणना योग्य नहीं है ?" 'निर्धन भिखमंगों से भरा हुआ देश कुछ पूंजीपतियों के रहने से ही समृद्ध नहीं कहा जा सकता । प्रसिद्ध है कि 'बुभुक्षितं किन्न करोति पापं ।" भूखा भारत धर्म, ज्ञान, रीति और नीति को
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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