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________________ किरण १] श्री बा० देवकुमार : जीवन और विचाधारा बोझ सँभालना पड़ा । कुछ वर्ष पश्चात् राज्य ने आनरेरी मैजिस्ट्रेट का सम्मानीय पद प्रदान कर इनकी योग्यता प्रमाणित की ! कई वर्षों तक इस पद का सुयोग्य संचालन कर इन्होंने भी राज्य कार्य में सहायता प्रदान की । श्रखिल भारतीय दि० जैन महासभा के दसवें अधिवेशन में प्रबन्धकारिणी कमेटी के सदस्य तथा बारहवें अधिवेशन में सभापति के उत्तरदायित्व पूर्ण पदों पर मनोनीत हो इन्होंने समाज की नौका को खेने का भी गुरुतर कार्य्य संपादन किया । सन् १६०२ से जीवन पर्यन्त ये तीर्थक्षेत्र कमेटी के सभासद बने रहे। काशी के स्याद्वाद विद्यालय का मन्त्रित्व पद भी आरम्भ में इन्होंने संभाला। इस प्रकार व्यक्तिगत और सामाजिक क्षेत्र के विभिन्न महत्वपूर्ण काय्यों में अनवरत संलग्न रहने पर भी इनकी ज्ञानपिपासा सदैव जाग्रत रही। सारे लौकिक कंझटों के बीच भी उत्साही देवकुमार श्राध्यात्मिक और साहित्यिक अध्ययन के द्वारा आत्मविकास करने का समय निकाल ही लेते थे / अचल पाषाणखण्डों से टकरा कर अग्रवाहिनी सरिता प्रबल वेग से उछलती है । सांसारिक विघ्न-बाधाएँ किसी कर्मठ जीवन में द्विगुणित उत्साह भरने वाली प्रेरणा शक्ति बन जाती हैं । व्यक्तिगत जीवन-संघर्ष ने कुमार जी को समस्त जैन-जाति की तन्द्रा भंग करने के लिए प्रोत्साहित किया । जातीय गौरव की पताका लेकर यह अमर सेनानी अपने समाज के विद्वानों के प्रति विह्वल होकर मार्मिक पुकार करता है : ३१. “हे हमारे परापकारियों! हे हमारे भाइयों ! हे हमारे जैन जाति की अवनति देखकर सू बहाने वालो ! उठो, प्रमाद-निद्रा छोड़ो, शाककंटक का मुख तोड़ा और धार्मिक प्रीति में भरकर मजहवी जोश का डंका बजाओ ।" कौन हैं वे शत्रु जा हमारी जाति को शेषाचह्न कर देने के लिए सतत् प्रयत्नशील हैं ? "देखो २ श्रविद्या राक्षसी इसका घसीटे लिये जाती है । मिथ्यात्व राक्षस इसको इधर ढकेल रहा है । फूट चुड़ैल बीच में सहारा देकर अवनति के गढ़े में फेंक रही है। प्यारे भाइयों अब कोई कसर है ?" इनका दृढ़ विश्वास था कि ज्ञान के प्रचार बिना किसी भी जाति का उत्थान असंभव है । 'जैन गजट' के संपादकीय वक्तव्यों के द्वारा ये सदैव जैनियों को सभी प्रकार की शिक्षा और कलाकौशल में पारंगत होने की प्रेरणा देते रहे। लौकिक और पारमार्थिक सभी दृष्टियों से विद्या ग्रहण के पक्षपाती होने पर भी विशुद्ध ज्ञान की परिभाषा देते हुए ये कहते हैं "जो ज्ञान विषयानल का वर्द्धक हो, अन्य जीवों के पर्वत पर आरोहित करता हो, जो अपने श्रापको विस्मरण बाला हो, वह ज्ञान किसी प्रकार अशान से कम नहीं । -: विकास में बाधक हो, प्राणी को मान कराकर पर्वत की तलहठी में में पटक देने
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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