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________________ [ भाग १७ नवजागरण की जीवन शक्ति से अनुप्राणित हो रहा था, उमंगहीन निष्क्रिय जैन जाति मरघट की शान्ति अपनाये हुए थी । भौतिक स्वार्थपरता की काई से श्राच्छादित नीरव सरोवर में जातीय I उत्थान की एक लहर भी नहीं देखी जा सकती थी । चेतना विस्फुरित संवत् १९३३ के क्रान्ति के अग्रदूत भगवान् महावीर के इन मृतप्रायः उपासकों में प्रगति की करने के लिए स्वयं एक स्वर्गीय विभूति को मानव शरीर धारण करना पड़ा । चैत्र मास में जब स्वच्छ नीलम के पर्दे पर चन्द्रमा अपनी आठवीं कला का शुभ्र प्रकाश फैला रहा था, एक दिव्य ज्योति श्रारा के उसी प्रसिद्ध घराने में अवतरित हुई जो पहले से ही इसे धारण करने के लिए पवित्र बनाया जा चुका था। नवीन शिशु का प्रतिभाशाली मुखमण्डल और उसका लौकिक सौन्दर्य्यं इस तथ्य को सिद्ध कर रहा था कि एक उजड़े हुए समाज को बसाने पुत्र की योग्यता के ३० भास्कर लिए किसी देवकुमार को कष्ट करना पड़ा है। अनुभवी पिता ने अपने अनुकूल ही उसका नामकरण किया । इस सुन्दर बालक ने भी जीवन के दस बसन्त भी नहीं देखे थे कि पिता ने उसे जीवन-यज्ञ की वेदी पर अकेला छोड़ दिया साथ में रोने के लिए था एक नन्हां सा भाई धर्म कुमार, जिसने अभी तक यह भी नहीं जाना था कि जीवन और मृत्यु में क्या श्रन्तर है। जब इस परिवार से सहानुभूति रखने वाले इन वियुक्त बालकों के भविष्य का अनुमान करते, उस समय ये अपनी बाल सुलभ मुस्कुराहट से उस अंधकारमय भविष्य में मानों श्रलोक की रेखा खींच देते। कठिन अवसरों पर भी धैर्य धारण करने की कला सीखने का सुयोग इन्हें बचपन में ही मिल गया । भविष्य का निर्माण माँ की गोद में ही काल की करालता पर मुस्कुराने लगा । दस वर्ष के किशोर देवकुमार ने पैतृक उत्तराधिकार में एक बड़ी जमीन्दारी के साथ अपने पूर्वजों की उदार दानशीलता, धार्मिक उत्साह और जातीय गौरव की भावना को भी अपना लिया । श्रप्राप्तव्य होने के कारण इनकी जमीन्दारी राजकीय कोर्ट श्राव वार्ड्स के अधिकार में चली गयी । बालक देवकुमार की शिक्षा-दीक्षा का कोई समुचित प्रवन्ध नहीं हो सका । तीव्रबुद्धि, परिश्रम, श्रध्यवसाय र धैर्य के बल पर इन्होंने आइ० ए० तक कालेज की शिक्षा प्राप्त कर ली । इसके पूर्व ही सत्रह वर्ष की कोमल वय में इनके हाथ पीले किये जा चुके थे। इनकी पत्नी श्री अनूपमाला देवी स्थानीय एक प्रतिष्ठित जैन परिवार की सुशील कन्या थीं, जिन्होंने प्रत्येक अवस्था में अपने जीवन-सहचर को उत्साह और सहारा देते रहना ही अपना कर्त्तव्य समझा और श्राज भी उन्हीं के पथ का अनुसरण कर रही हैं। carriaी युवक कुमार की हार्दिक इच्छा विश्वविद्यालय की उच्चतम शिक्षा ग्रहण करने की थी, परन्तु पारिवारिक परिस्थिति ने इनकी प्रगति में बाधा डाल दी । जिलापति के श्रादेशानुसार इन्हें अपने नन्हें सुकुमार कन्धों पर जमीन्दारी और परिवार की देखरेख का भारी
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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