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________________ [ भाग १५ अनेक जैन राजाओं के साथ-साथ ऐसे निष्णात विद्वान्, कवि, कलाकार और प्रभावक गुरु हुए, जिनका प्रभाव दक्षिण प्रान्त की कर्णाटक भूमि के कण-कण पर विद्यमान था । सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक सभी मामलों में जैनाचार्यों का पूरा-पूरा हाथ था, उनकी सम्मति और निर्णय के उपरान्त ही किसी भी सांस्कृतिक कार्य का प्रारम्भ होता था । भद्रबाहु स्वामी के संघ के पहुँचने के पहले भी यहाँ जैन गुरुओं को सम्मान्य स्थान प्राप्त था। मौर्य साम्राज्य के बाद इस प्रान्त श्रन्धवंश का शासन स्थापित हुआ, इस वंश के सभी राजा जैनधर्म के उन्नायक रहे हैं । इनके शासन काल में सर्वत्र जैनधर्म का अभ्युदय था । इसके पश्चात् उत्तर-पूर्व में पल्लव और उत्तर-पश्चिम में कदम्ब कदम्ब वंश के अनेक शिलालेख उपलब्ध हैं, को दान देने का उल्लेख है । इस वंश का में ५० वंश के राज्य इस प्रान्त में स्थापित हुए । जिनमें इस वंश के राजाओं द्वारा जैनों धर्म जैन था । भास्कर कदम्ब वंश के समान चालुक्य वंश के राजा भी जैनधर्मानुयायी थे । पल्लव वंश के राजाओं के जैन होने के सम्बन्ध में ऐतिहासिक उल्लेख नहीं मिलता है पर भगवान् नेमिनाथ का विहार पल्लव देश में होने से तथा उस समय के समस्त दक्षिण के वातावरण को को जैनधर्म से अनुप्राणित होने के कारण प्राचीन पल्लव वंश भी जैनधर्म का अनुयायी रहा होगा । चालुक्य नरेशों ने अनेक नवीन जैन मन्दिर बनवाये तथा उन्होंने अनेक मन्दिरों का जीर्णोद्वार करया था । कन्नड़ के प्रसिद्ध जैन कवि पम्प का भी सम्मान इस वंश के राजाओं द्वारा हुआ था । को राजनीति और धर्मं गंगवंश – कर्णाटक प्रान्त में जैनधर्म के प्रसारकों में इस वंश के राजाओं का प्रमुख हाथ है। इतिहास बतलाता है कि दक्षिण भारतीय गंगराजाओं के पूर्वज गंगानदप्रदेशवासी इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय थे। इनकी सन्तान परम्परा में दडिंग और माधव नामके दो शूरवीर व्यक्ति उत्पन्न हुए, जिन्होंने पेर नामक स्थान पर जाकर आचार्य सिंहनन्दी का शिष्यत्व ग्रहण किया । उस समय पेरूर जैन संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था, यहाँ पर जैन मन्दिर और जैन संघ विद्यमान था । आचार्य ने इन दोंनों शास्त्र की शिक्षा देकर पूर्ण निष्णात बना दिया तथा पद्मावतीदेवी से उनके लिये वरदान प्राप्त किया । श्राचार्य की शिक्षा और वरदान के प्रभाव से इन दोनों वीरों ने अपना राज्य स्थापित कर लिया तथा कुवलाल में राजधानी स्थापित कर गंगवाडी प्रेदश पर शासन किया। गंगराजाओं का राजचिन्ह मदगजेन्द्र लाञ्छन और उनकी ध्वजा पिच्छ चिन्ह से अंकित थी । उस समय जैनधर्म राष्ट्रधर्म था, और इसके गुरु केवल धार्मिक ही गुरु नहीं थे, बल्कि राजनैतिक गुरु भी थे । दडिग ने जैनधर्म के प्रसार के लिये मंडलि नामक स्थान पर एक लकड़ी का भव्य जिनालय निर्माण कराया, जो शिल्पकला का एक सुन्दर नमूना था। क्योंकि उस
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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