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दक्षिण भारत में जैनधर्म का प्रवेश और विस्तार
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दक्षिण भारत में जैन धर्म की प्राचीनता के जैन साहित्य में अनेक प्रमाण हैं । निर्वाणकाड की निम्न गाथा में बताया है
पण्डुसुमतिरिवजपा दविड गरिंदा
अटुकोडियो ।
सेतु जय गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥
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अभिप्राय यह है कि पल्लवदेश में विराजमान भगवान् श्ररिष्टनेमि के निकट पाण्डवों ने जिनदीक्षा ग्रहण की थी; इनके साथ दक्षिण देश के और भी कई राजाओं ने मुनित्रत धारण किया था; जो कि पाण्डवों के साथ तपकर शत्रुंजय गिरि से मुक्त हुए थे ।
महापुराण में बताया गया है कि जब कल्पवृत्त लुप्त हो गये और कर्म भूमिका आरम्भ हो गया तो अन्तिम कुलकर नाभि राजा के पास प्रजा आायी उन्होंने उसे भगवान् ऋषभनाथ के पास भेज दिया । प्रजाने भगवान् ऋषभनाथ से प्रश्न किया- भगवन ! कृपाकर आजीविका का उपाय बतलाइये, जिससे हमलोग सुखपूर्वक रह सकें । भगवान् ने प्रजाको षट्कर्मों का उपदेश दिया । उनके स्मरणमात्र से इन्द्र अनेक देवों के साथ श्रा उपस्थित हुआ और उसने संकेतमात्र से ही नगर, गाँव, देश और प्रान्तों का वर्गीकरण कर दिया । तथा वहाँ जिन चैत्यालय, तिविम्व एवं अन्य जैन संस्कृति के चिन्हों को प्रकट किया। बनाये गये देशों की संख्या ५२ बताय गयी है; जिसमें दक्षिण भारत के अनेक बड़े-बड़े नागर शामिल हैं -
करहाटमहाराष्ट्रसुराष्ट्रा भोरकोंकणाः । वनवासान्धकष्टिकोशलाञ्चोलकेरलाः ॥ दावभिसारसौवीरशर सेनापरान्तकाः । विदेहसिन्धुगान्धारपवनाश्चेदिपल्लवाः ||
कांबोजारबाल्हीकतुरुष्कशक केकयाः ।
महापुराण में भरत चक्रवर्ती की विजय का वर्णन करते हुए दक्षिण दिशा के राजाओं पर की गयी विजय के निरूपण में बताया है कि
चोलिकामालिकप्रायान्प्रायशोऽनृजुचेष्टितान् ।
केरलान्सर लालापान्कल गोष्ठीष चंचुरान् ॥ पाएड्यान्प्रचंड दोर्दण्डान् खण्डितारातिमण्डलान् ।
इससे स्पष्ट है कि भरत चक्रवर्ती ने चोल, पाण्ड्य, करल आदि राजाओं को हराकर वहाँ जैनधर्म का प्रचार किया था । प्रत्येक नरेश उस युग में पराजित देशों में अपने धर्म का प्रचार करता था । दूसरी बात यह है कि भगवान् ऋषभदेव के संकेत से जब इन्द्र ने
१ देखें - संक्षिप्त जैन इतिहास भा० ३ ० १ पृ० ११४
२ जिनसेनाचार्य विरचित महापुराण पर्व १६ श्लो० १३०-१६५