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________________ २२ भास्कर [ भाग १५ के साथ उद्धत किया है; संभवतः उनका उद्देश्य मूल कथा को उन कतिपय संशोधनों एवं परिवर्तनों के साथ पुनः निर्मित करने का था जो कि उनकी स्वगुरुपरम्परा द्वारा सम्मत थे अथवा उस आम्नाय में, जिससे उनका स्वयं का सम्बंध था, स्वीकृत थे। विविक्षित कथानक का एक अन्यरूप स्थविरावलि चरित्र' अर्थात् 'परिशिष्ट पर्व' में उपलब्ध होता है, जिसे कि हेमचन्द्रमूरि ने अपने त्रिषष्ठिश नाका पुरुप चरित्र' नामक ग्रन्थ के परिशिष्ट रूप में लगभग सन् ११६५ ई० में संस्कृत पद्य में रचा था। यह कथानक प्रधानतः हरिभद्रीय श्रावश्यक वृत्ति में वर्णित कथा पर आधारित है और २७६२ श्लोक प्रमाण है। इस सम्बंधों यह कहा जा सकता है कि अनुश्रुति का वह अंश जो चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक के पश्चाद्वर्ती समय से सम्बंधित है, चाहे हरिभद्र द्वारा अथवा देवेन्द्रगणि द्वारा वर्णित हुआ हो, इतिहास में अधिक महत्व नहीं रखता। इस अनुश्रुति की दूसरी धारा का, जो कि विशेषरूप से जैन कथा साहित्य (दिगम्बर) में उपलब्ध होती है, सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधित्व हरिषेण के 'बृहत्कथाकोष', प्रभाचन्द्र के 'आराधनासत्कथाप्रबंध'. ब्रह्मनेमिदत्त के आराधनाकथाकोष, तथा श्रीचन्द्र के 'कथाकोष' ३ में प्राप्त होता है। जहां तक इन ग्रन्थों के साहित्यिकरूप का सम्बंध है. हरिपेण और नेमिदा के कथा कोप संस्कार में हैं और श्रीचन्द्र का प्राकृत पद्य में। उक्त कथानक सहित मालगन्द्र में पाप आयुना ज्ञान नहीं है. जबकि प्रभाचन्द्र का ग्रन्थ संहाल गद्य में है। चारों का कोपों में सर्व प्राचीन और संभवतया सर्वाधिक महत्व पृर्ग हरिघा (१३:३० मा कमाकोप है और सबसे अन्तिम नेमिदत्त (लगभग १५३० ई०) का, जबकिशानदानी नीक के काल में रचे गये । उक्त चारों ही ग्रन्थकारों ने अपनी अनुश्रत कथाएं जैनी (विमलके एक प्राचीन सर आराधनाग्रन्थ-अर्थात् शिवाय, शिवकोटि अथवा शिवको वाचाय के भगवती आराधना से प्राप्त की प्रतीत होती हैं। * खम्बक के इस कथन का काला यह प्रतीत होता है कि चूंकि चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक के उपरान्त का इतिहास भानुनिक विद्वानों ने अन्य जैनेना आधारों से भली प्रकार सुनिश्चित कर लिया है, अतः उममें जैनाचार में मिल अनुभूति के साथ कहीं २ विरोध होने के कारण उस सम्बंध में जन अनुभूति को महत्व नहीं देना चाहिये। २ यह कयाकोप-30 ए. एन. उपाध्यं द्वारा संपादित. पृ. ३३९-३३८, बम्बई १९४३ ३ वहीं, भूमिका पृ ५७ ५ः ४ वहो---प्रशस्ति श्लो. ११-१२ (= ९३१-५३२ ई०); winternity-Hist of Incl. Jit.jip.514. ५ यह धाराधाना अथवा मूलाराधना भी कहलाता है (मूलाराधना-सं० टीका तथा हि. अनुवाद पट्टा १५५६-शोलापुर १५३.५), डा. उपाध्ये का यह कहना कि इस ग्रन्थ की भाषा शौरसेनी प्राकृत है, ठीक ही है (बृहन्का भू० पृ० ५०), किन्तु वह अमिश्रित नहीं है, क्योंकि उसमें धमागधी शब्द भी पान परत्या में पुनहा हैं।
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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