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________________ किरण २] सम्पादकीय प्रारम्भ करता है, तब उसके सामने सबसे बड़ी कठिनाई यही आती है कि अन्य समय जिन सडी, गली, गन्दी एवं घिनौनी बातों की उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी, वे ही उसे याद आती हैं और वह घबड़ा जाता है। इसका प्रधान कारण यहीं है कि जिसका वह ध्यान करना चाहता है, उसमें मन अभ्यस्त नहीं है और जिनमें मन अभ्यस्त है उनसे उसे हटा दिया गया है, अतः इस प्रकार की परिस्थिति में मन निकम्मा हो जाता है। किन्तु मन को निकम्मा रहना आता नहीं है, जिससे यह पुराने चित्रों को उधेड़ने लगता है; जिनका प्रबल संस्कार उसके ऊपर पड़ा है। जैनाचार्यों ने धार्मिक गणित की गुन्थियों को सुलझाने के मार्ग द्वारा मन को स्थिर करने की प्रक्रिया बतातायी है क्योंकि नये विषय में लगने से मन ऊबता है, घबड़ाता है, सकता है और कभी कभी विरोध भी करने लगता है। जिस प्रकार पशु कमी नवीन स्थान पर नये खटे से बांधने पर विद्रोह करता है, चाहे नयी जगह उसके लिये कितनी मुखप्रद क्यों न हो, फिर भी अवसर पाते ही रस्सी तोड़कर अपने पुराने स्थान पर भाग जाना चाहता है। इसी प्रकार मन भी नये विचार में लगना नहीं चाहता है। कारण स्पष्ट है; क्योंकि विषय चिन्तन का अभ्यस्त मन आत्मचिन्तन में लगने से घबड़ाता है। यह बड़ा ही दुर्दमनीय और चंचल है। धार्मिक गणित के सतत अभ्यास से यह आत्म चिन्तन में लगता है; जिससे व्यर्थ को आयश्यक बातें विचार क्षेत्र में प्रविष्ट नहीं हो पाती। वितस भिन्न का प्रयोग भी इसी कारण जैनाचार्यों ने किया है। इसके द्वारा मंख्याओं का परिज्ञान तो होती ही है. पर साथ ही मन को निश्चित स्थान पर प्राधारित करने का यह श्रेष्टतम साधन है। यद्यपि आज के गणितज्ञ वितत भिन्न के आविष्कार का श्रेय साधारणतः इटालियन गणितज्ञ पिटी एनटोनिया कॉटालडी, जिसकी मृत्यु १६६६ ई. में हुई, को देते हैं। उसने इसका प्रयोग वर्गमूल निकालने के लिये किया था; जैसे १५/२८ =५+ + ++ ++ +....... यह एक आवत वितत भिन्न के रूप में है। साधारण प्रयोगों के सिवा इस महानुभाव ने वितत भिन्न को सैद्धान्तिक रूप नहीं दिया था। इसके पूर्व राफेलो वाम्बोली नामक एक गणिन के बीजगणित में, जिसकी रचना सन् १५०६ ई० में की गयी है, वितत भिन्न की चर्चा मिलती है। हो सकता है कि कोटालडी को वितत भिन्न को प्रेरणा इसी पुस्तक से प्राप्त हुई हो। इस अवस्था में भी कॉटालडी को वितत भिन्न की सांकेतिकता के आविष्कार का श्रेय दिया ही जायगा। डेनियल
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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