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________________ विविध विषय श्रीयुत बा० कामता प्रसाद जैन एम० आर० ए० एस० डी० एल० ] १- " श्रीमच्छंकर दिग्विजय" में जैन उन्लेख आठवीं शताद्वि में वैदिकपरम्परा के अभ्युत्थान का श्रेय दक्षिण भारत के श्री शङ्कराचार्य को प्राप्त है। उन्होंने अपने अनुयायियों को आध्यात्मिक ज्ञान-प्रदान करने के साथ ही उनको घर्णाश्रम धर्म का कट्टर पक्षपाती बनाया था । श्रमण परम्परा की उदारवृत्ति के लिये वह एक चिनौनी थी। श्री शङ्कराचार्य ने अपने मत का प्रचार करने के लिये भारत के भिन्न-भिन्न भागों का दौरा किया था और विविध मत-मतान्तरों के धर्माचार्यो से शास्त्रार्थ भी किये थे। उनके इन दौरों और शास्त्रार्थो का विवरण "श्रीमच्छंकरदिग्विजय" नामक ग्रन्थ में श्री विद्यारण्यस्वामि नामक ग्रंथकर्त्ता ने संकलित किया है । हमारे सम्मुख उसकी 'आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावलि, प्रन्धाङ्क २२' नामक वृति उपस्थित है। इसमें धनपति सूरि की टीका भी दी गई है, इसके अन्तर्गत हमको दो स्थलों पर जैनधर्म विषयक उल्लेख मिले हैं। पहले ही आन्ध्र-कर्णाटकादि देशों में वाद करते हुये जब वह उज्जैन पहुंचते हैं तो वहां किसी कौपीन मात्र धारी क्षपणक से उनका वाद होता है। टीकाकार इस घटना को निम्न प्रकार चित्रित करता है :"कौपीन मात्र संधारी जैनस्तु तत श्रागतः । मलेन विदग्धसर्वाङ्गः सदाऽर्हन्नम इत्यसौ ||७४ || १५ ॥ उच्च न्नस चोचैः शून्याङ्कः शून्यपुराडूकः । विन्दुपुरा-मेतश्च शिष्यैः सर्वभयंकरः ॥७५ || पिशाचवत्समागत्य प्राह श्री शंकरं गुरुम् । जिनोदेवोऽस्ति सर्वेषां मुक्तिदः प्राणिनां हृदि || ७६॥ जीवात्मना स्थितः सोऽतिज्ञानमात्रेण सर्वदा । मुक्तत्वात्तस्य देहस्य पातात्तु समनन्तरम् ॥७७॥ जीवः शुद्धः सदैवास्ति मलपिण्डस्तु देहकः । स्नानादि कर्मणा नैव शुद्धिं याति कदाचन ||७= || तस्मात्स्नानादिकं नैव कर्तव्यं वृथा यतः । [ ले J इत्युक्तोऽसौ जगादेदं मैवं भो जैनदुर्मते ॥ ७६ ॥ जीवस्य देहत्रितयं हि विद्यते स्थूलश्च सूक्ष्मश्च तथैव कारणम् । तेषां क्रमाज्जातु लयो भवेद्यदा स्यात्सच्चिदानन्दवपुस्तदा स्वयम् ||८०||
SR No.010080
Book TitleBabu Devkumar Smruti Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1951
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size47 MB
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