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मेरी भावना
जिसने राग-द्वेष, कामादिक जीते सब जग जान लिया, सब जीवों को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उस को स्वाधीन कहो, भक्तिभाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो ।।
विषयों की आशा नहिं जिन के, साम्यभाव नित रखते हैं, निज-पर के हित साधन में जो, निशदिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुख समूह को हरते हैं ।
रहे सदा सतसंग उन्हीं का, ध्यान उन्हीं का नित्य रहे, उन ही जैसी चर्चा से यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे । नहीं सताऊं किसी जीव को, झूठ कभी नहीं कहा करूं, परधन, वनिता पर न लुभाऊ, सन्तोषामृत पिया करूं।।
अहंकार का भाव न रक्खें, नहीं किसी पर क्रोध करूं, देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या भाव धरूं ।