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________________ ग्रहास्य और संन्यासी कोई भी नहीं बच सकता । हम "सांस लेते हैं, पानी पीते हैं, चलते-फिरते हैं, भोजन करते हैं तो ऐसे अनेक नन्हे कीटाणुओं की हत्या होती ही है। परन्तु बस यानी दो-इन्द्री से पंचेन्द्रिय जीवों तक की हिंसा के भी चार भेद हैं। (१) संकल्पी हिंसा-इरादा कर के, दुष्ट भावना से या झूठा धर्म समझ कर (बलि इत्यादि) पशु वध करना, शिकार खेलना, यह सब संकल्पी हिंसा है। गृहस्थ को केवल इसी हिंसा का त्याग करना चाहिए। आगे लिखी तीन तरह की हिंसा से गृहस्थ वच नहीं सकता इस लिए उस को उन का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है। (२) उद्योगी हिंसा-खेती, व्यापार, कल-कारखाने आदि के चलाने में जो हिंसा अपने आप हो जाती है उसे गृहस्थ कर सकता है। (३) विरोधी हिंसा-शत्रु से लड़ने में, अन्यायी को दण्ड देने में जो हिंसा होती है उसे विरोधी हिंसा कहते हैं । गृहस्थ का कर्तव्य है कि रण में शत्रु सामने हो, अथवा कोई देश की उन्नति में बाधक हो, जो अन्याय पर तुला हो, उस के विरुद्ध अपनी और देश की रक्षा के लिए वीरता से शस्त्र उठाए । परन्तु दीन
SR No.010076
Book TitleSaral Manav Dharm Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendra Sen
PublisherShakun Prakashan Delhi
Publication Year
Total Pages69
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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