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रहा ही खाना असम्भव हो गया और मुझे के आने 'लगी। मेरी वह रात बड़ी कठिनाई से कटी । सपने में ऐसा मालूम होता था मानो वकरा मेरे पेट में जिन्दा है और 'में-में करता है। मैं रात भर चौंक-चौंक कर उठता और पछताता रहा ।"
इस तरह के भोज का चार-पांच बार ही प्रबन्ध हो सका । जव गांधी जी ऐसे भोज में सम्मिलित होते थे तो उन को घर खाना न खाने का कोई झूठा बहाना बनाना पड़ता था। इस प्रकार झूठ बोलने से उन की अात्मा को बहुत कष्ट होता था । मन कचोटता रहता। अन्त में गांधी जी ने अपने मित्र से साफ-साफ कह दिया कि मां-बाप से झूठ बोल कर वह मांस नहीं खा सकते। इस तरह उस दुष्ट मित्र से उन्हों ने अपनी जान छुड़ाई।
गांधी जी के पिता जी बड़े सत्संग प्रेमी थे। वे नित्य मन्दिर जाया करते थे। साथ में बच्चों को भी ले जाते थे। घर पर कई जैन साधु भी चर्चा करने आया करते थे। उन के कई मुसलमान और पारसी मित्र भी थे। ये लोग अपने-अपने धर्म की बातें गांधी जी के पिता जी को सुनाया करते थे। इस तरह
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