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सार जीवकाम गाथा ३१-३२ १०४]
प्रत्याख्यानोदयात् संयमभावो न भवति नरिं तु ।
स्तोकव्रतं भवति ततो, देशवतो भवति पंचमः ॥३०॥ टीका - अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायनि का उपशम तै प्रत्याख्यानावरण कषायनि का देशघाती स्पर्धकनि का उदय होते संतें सर्वघाती स्पर्धकनि का उदयाभाव रूप लक्षण जाका, ऐसा क्षय करि जाकै सकल संयमरूप भाव न हो है । विशेष यह देशसंयम कहिए, किंचित् विरति हो है, ताकी धर-धरै, देशसंयत नामा पंचमगुणस्थानवर्ती जीव जानना ।
जो तसवहाउ विरदो, अविरदो तह य थावरवहादो। एक्कसमयम्हि जीवो, विरदाविरदो जिरोक्कमई ॥३१॥
यस्त्रसवधाद्विरत , अविरतस्तथा च स्थावरवधात् ।
एकसमये जीवो, विरताविरतो जिनकमतिः ॥३१॥ ___टीका - सोई देशसंयत विरताविरत ऐसा भी कहिए है । एक काल ही विपै जो जीव त्रसहिंसा ते विरत है अर स्थावरहिसा ते अविरत है, सो जीव विरत अर सोई अविरत ऐसे विरत-अविरत विपै विरोध है; तथापि अपने-अपने गोचर भाव स-स्थावर के भेद अपेक्षा करि विरोध नाही। तीहि करि विरत-अविरत ऐसा उपदेश योग्य है । वहरि तैसे चकार शब्द करि प्रयोजन विना स्थावर हिंसा को भी नाही करै है, ऐसा व्याख्यान करना योग्य है । सो कैसा है ? जिनकमतिः कहिए जिन जे प्राप्तादिक, तिनही विपै है एक केवल मति कहिए इच्छा - रुचि जाके ऐसा है । इस करि देशसयत के सम्यग्दृप्टीपना है, ऐसा विशेपण निरूपण कीया है। यह विशंपण आदि दीपक समान है, सो आदि विपै धरचा हवा दीपक जैसे अगिले सर्व पदार्थनि की प्रकाशै, तैसे इहांते आगे भी सर्व गुणस्थानकनि विषै इस विशेषण करि संबंध करना योग्य है - सर्व सम्यग्दृष्टी जानने ।
आगे प्रमत्तगुणस्थान की गाथा दोय करि कहैं है - संजलण पोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा । मलजरगणपमादो वि, य तम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥३२॥
संज्वलननोकषायारणामुदयात्संयमो भवेद्यस्मात् । मलजननप्रमादोऽपि च तस्मात्खलु प्रमत्तविरतः सः ॥३२॥