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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५
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अन्यकरि कराया अर्हन्तप्रतिविवादिक विषै यहु अन्य का है, ऐसे पर का मानिकरि भेदरूप भजन करै है; ताते चल का है ।
इहा दृष्टांत कहै है - जैसे नाना प्रकार कल्लोल तरंगनि की पंक्ति विषै जल एक ही अवस्थित है, तथापि नाना रूप होइ चल है; तैसे मोह जो सम्यक्त्व प्रकृति का उदय, ताते श्रद्धान है, सो भ्रमण रूप चेष्टा करें है ।
भावार्थ - जैसे जल तरंगनि विषै चंचल होइ, परतु श्रन्यभाव को न भजे, तैसे वेदक सम्यग्दृष्टि अपना वा अन्य का कराया जिनविवादि विषै यहु मेरा, यहु अन्य का इत्यादि विकल्प करें है, परंतु अन्य देवादिक को नाही भजै है | व मलिनपना कहिए है
तदप्यलब्ध माहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मणः । मलिनं मलसंगेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत् ॥
याका अर्थ - सो भी वेदक सम्यक्त्व है, सो सम्यक्त्व प्रकृति के उदय ते न पाया है माहात्म्य जिहि, ऐसा हो है । बहुरि सो शकादिक मल का संगकरि मलिन हो है । जैसे शुद्ध सोना वाह्य मल का संयोग तै मलिन हो है, तैसे वेदक सम्यक्त्व शकादिक मल का संयोग ते मलिन हो है ।
गाढ कहिए है।
स्थान एव स्थितं कंप्रमगाढमिति कीर्त्यते । वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता ॥ समेप्यनंतशक्तित्वे सर्वेषामर्हतामयं ।
देवोऽस्मै प्रभुरेषोस्मा इत्यास्था सुदृशामपि ॥
याका अर्थ - स्थान कहिए प्राप्त, आगम, पदार्थनि का श्रद्धान रूप अवस्था, तिहि विषे तिष्ठता हुआ ही कांपै, गाढा न रहे, सो अगाढ ऐसा कहिए है ।
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ताका उदाहरण कहैं हैं - असे तीव्र रुचि रहित होय सर्व ग्रर्हन्त परमेष्ठीनि के अनतशक्तिपना समान होते संते, भी इस शातिकर्म, जो शाति क्रिया ताकै अथि शातिनाथ देव है, सो प्रभु कहिए समर्थ है । बहुरि इस विघ्ननाशन आदि क्रिया के थि पार्श्वनाथ देव समर्थ है । इत्यादि प्रकार करि रुचि, जो प्रतीति, ताकी शिथिलता संभव है । ताते वूढे का हाथ विषे लाठी शिथिल संबंधपना करि अगाढ है, तैमै सम्यक्त्व प्रगाढ है ।