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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३ ते जीवसमास है । वहुरि परि कहिये समंतता ते प्राप्ति कहिये प्राप्ति, सो पर्याप्ति है । शक्ति की निष्पन्नता का होना सो पर्याप्त जानना । बहुरि प्राणंति कहिये जीव है जीवितव्यरूप व्यवहार को योग्य हो है जीव जिनिकरि, ते प्राण हैं । वहुरि आगम विप प्रसिद्ध वांछा, संज्ञा, अभिलाषा ए एकार्थ है। वहुरि जिन करि वा जिन विप जीव है, ते मृग्यते कहिये अवलोकिये ते मार्गणा है । तहां अवलोकनहारा मृगयिता तो भव्यनि विष उत्कृप्ट, प्रधान तत्त्वार्थ श्रद्धावान जीव जानना । अवलोकने योग्य, मग्य चोदह मार्गणानि के विशेष लिये आत्मा जानना । बहुरि अवलोकना मृग्यता का सावन को वा अधिकरण को जे प्राप्त, ते गति आदि मार्गणाः है । वहुरि मार्गणा जो अवलोकन, ताका जो उपाय, सो जान-दर्शन का सामान्य भावरूप उपयोग है । ऐसे इन प्ररूपणानि का साधारण अर्थ का प्रतिपादन कह्या।
प्रागै सग्रहनय की अपेक्षा करि प्ररूपणा का दोय प्रकार को मन विर्षे धारि गुणस्थान-मार्गणास्थानरूप दोय प्ररूपणानि के नामांतर कहै है -
संखेओ ओघोत्ति य, गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा । वित्थारादेसोत्ति य, मग्गणसण्णा सकम्मभवा ॥३॥ संक्षेप मोघ इति च गुणसंज्ञा, सा च मोहयोगभवा ।
विस्तार आदेश इति च, मार्गणसंज्ञा स्वकर्मभवा ॥३॥
टीका - संक्षेप ऐसी अोघ गुणस्थान की संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्ग विप हद है, प्रसिद्ध है। गुणस्थान का ही संक्षेप वा ओघ असा भी नाम है। वहरि मी संज्ञा 'मोहयोगभवा' कहिए दर्शन-चारित्रमोह वा मन, वचन, काय योग, तिनकरि उपजी है । इहा संत्रा के धारक गुणस्थान के मोह-योग ते उत्पन्नपना है । ताने तिनकी मना के भी मोह-योग करि उपजना उपचार करि कहा है। बहरि मन विप नकार कह्या है, तातै सामान्य प्रेमी भी गुणस्थान की संज्ञा है; असा मानना।
वहरि तने ही विस्तार, आदेश असी मार्गणास्थान की संज्ञा है। मार्गणा गाविनार, यादंग अमा नाम है । सो यह संना अपना-अपना मार्गणा का नाम की मनोनि के व्यवहार को कारण जो कर्म, ताके उदय ते हो है । इहां भी पूर्ववत संज्ञा
ने उपजने का उपचार जानना । निश्चय करि संना ती शब्दजनित ही है।