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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ) मध्य विषै कीया हूवा मंगल विद्या का व्युच्छेद न होइ, ताकौ करै है। अन्त विष कीया हूवा विद्या का निर्विघ्नपन को करै है ।
कोई तर्क करै कि -- इष्ट अर्थ की प्राप्ति परमेष्ठीनि के नमस्कार ते कैस होइ ? तहां काव्य कहिए है -
"नेष्टं विहंतुं शुभभावभग्नरसप्रकर्षः प्रभुरंतराय ।
तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकृदर्हदादेः ॥" याका अर्थ - अर्हन्तादिक को नमस्काररूप शुभ भावनि करी नष्ट भया है अनुभाग का आधिक्य जाका, असा जु अन्तराय नामा कर्म, सो इष्ट के घातने को प्रभु कहिए समर्थ न होइ, तातै तिस अभिलाष युक्त जीव करि गुणानुराग तै अर्हत आदिक को कहा हूवा नमस्कारादिक, सो इष्ट अर्थ का करनहारा है - औसा परमागम विष प्रसिद्ध है, तातै सो मंगल अवश्य करना ही योग्य है ।
बहुरि निमित्त इस शास्त्र का यह है -- जे भव्य जीव है, ते बहुत नय प्रमाणनि करि नानाप्रकार भेद को लीये पदार्थ को जानहु, इस कार्य को कारणभूत करिए है ।
बहुरि हेतु इस शास्त्र के अध्ययन विष दोय प्रकार है - प्रत्यक्ष, परोक्ष । तहां प्रत्यक्ष दोय प्रकार - साक्षात्प्रत्यक्ष, परपराप्रत्यक्ष । तहा अज्ञान का विनाश होना, बहुरि सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होनी, बहुरि देव-मनुष्यादिकनि करि निरतर पूजा करना, बहुरि समय-समय प्रति असख्यात गुणश्रेणीरूप कर्म निर्जर होना, ये तो साक्षात् प्रत्यक्ष हेतु है। शास्त्राध्ययन करते ही ए फल निपजै है । बहुरि शिप्य वा शिप्यनि के प्रति शिष्य, तिनकरि निरंतर पूजा का करना, सो परंपरा प्रत्यक्ष हेतु है । शास्त्राध्ययन कीए तै भैसी फल की परंपरा हो है।
__बहुरि परोक्ष हेतु दोय प्रकार - अभ्युदयरूप, निःश्रेयसरूप । तहा सातावेदनीयादिक प्रशस्त प्रकृतिनि का तीन अनुभाग का उदय करि निपज्या तीर्थकर, इंद्र, राजादिक का सुख, सो तौ अभ्युदयरूप है । बहुरि अतिशय संयुक्त, आत्मजनित, अनौपम्य, सर्वोत्कृष्ट तीर्थकर का सुख वा पंचेद्रियनि ते अतीत सिद्ध सुख, सो निःश्रेयसरूप है । ग्रंथ अध्ययन ते पीछे परोक्ष असा फल पाइए हैं । ताते यह ग्रंथ ऐसे फलनि का हेतु जानना।