________________
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका )
[ ७५७
टीका बादर सूक्ष्म एकेद्रिय, बहुरि बेद्री, तेद्री, चौद्री, असैनी पचेंद्री इनकी सामान्य रचना पर्याप्त नामकर्म का उदय संयुक्त, तीहि विषे तीन आलाप है । निर्वृत्ति अपर्याप्त अवस्था विषै भी पर्याप्त नामकर्म ही का उदय जानना ।
सणी श्रघे मिच्छे, गुणपडिवण्णेय मूलप्रालावा । लद्धियपुणे एक्कोsपज्जत्तो होदि आला ॥७२० ॥
संयोघे मिथ्यात्वे, गुणप्रतिपन्ने च सुलालापाः । लब्ध्यपूर्णे एकः, अपर्याप्तो भवति आलापः ॥७२०॥
टीका - सैनी पंचेद्री तियंच की सामान्य रचना विषै पच गु णस्थान है । तिनि विषे मिथ्यादृष्टी में तो मूल में कहे थे, तेई तीन आलाप है । बहुरि जो विशेष गुण को प्राप्त भया, ताके सासादन अर संयत विषे मूल मे कहे ते तीन, तीनो आलाप हैं । मिश्र र देशसंयत विषै एक पर्याप्त आलीप है । बहुरि सैनी लब्धि अपर्याप्त विषै एक लब्धि अपर्याप्त आलाप ही है ।
आगे काय मार्गणा विषै दोय गाथानि करि कहै है -
भू-आउ-तेउ - वाऊ - रिणच्चचदुग्गदि - रिगगोदगे तिण्णि । तारणं थूलिदरेसु वि, पत्तेगे तद्दुभेदे वि ॥७२१॥
तसजीवाणं श्रघे, मिच्छादिगुणे वि श्रोध आलायो । पुणे एक्कोsपज्जत्तो होदि आलाओ ॥७२२|| जुम्मं ।
भ्वप्तेजोवायु नित्यचतुर्गति निगोदके त्रयः । तेषां स्थूलतरयोरपि, प्रत्येके तद्विभेदेऽपि ॥ ७२१॥
सजीवानामोघे, मिथ्यात्वादिगुणेऽपि श्रघ आलापः । लब्ध्यपूर्ण एकः, अपर्याप्तो भवत्यालापः ॥७२२॥ युग्मम् ।
टीका - पृथ्वी, अप, तेज, वायु, नित्य निगोद, चतुर्गतिनिगोद इनके बादरसूक्ष्म भेद, बहुरि प्रत्येक वनस्पती याके सप्रतिष्ठित - अप्रतिष्ठित भेद, इनि सवनि दिये तीन-तीन आलाप है । त्रस जीवनि के सामान्य करि चौदह गुणस्थाननि दिपं