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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ७४५ बहुरि औदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर नामा नामकर्म के उदय करि आहार वर्गणारूप आए जे पुद्गल स्कंध, तिनिका निर्माण नामा नामकर्म के उदय करि निपज्या जो शरीर, ताके परिणमन के निमित्त ते जीव का प्रदेशनि का जो चचल होना, सो औदारिक आदि काय योग है। बहुरि शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् एक समय घाटि अंतर्मुहूर्त पर्यत, तिनके मिश्र योग है। इहा मिश्रपना कह्या है, सो औदारिकादिक नोकर्म की वर्गणानि का आहरण आप ही ते न हो है, कार्माण वर्गणा का सापेक्ष लीए है; तातै कह्या है । बहुरि विग्रह गति विष औदारिकादिक नोकर्म की वर्गणानि का तौ ग्रहण है नाही, कार्माण शरीर नामा नामकर्म का उदय करि. कार्माण वर्गणारूप आए जे पुद्गल स्कंध, तिनिका ज्ञानावरणादिक कर्म पर्याय करि जीव के प्रदेशनि विष बध होते भया जो जीव के प्रदेशनि का चचलपना, सो कार्माण, काययोग है । अस ए पंद्रह योग है।
तिसु तेरं दस मिस्से, सत्तसु णव छठ्ठयम्मि एगारा। जोगिम्मि सत्त जोगा, अजोगिठाणं हवे सुण्णं ॥७०४॥
त्रिषु त्रयोदश दश मिश्रे, सप्तसु नव षष्ठे एकादश ।
योगिनि सप्त योगा, अयोगिस्थानं भवेत् शून्यम् ॥७०४॥ टीका - कहे पद्रह योग, तिनि विष मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत इन तीनों वि तेरह तेरह योग है, जाते आहारक, आहारकमिश्र, प्रमत्त बिना अन्यत्र नाही है। बहुरि मिश्र विष औदारिक मिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्माण ए तीनो भी नाही, ताते दश ही है। बहुरि ऊपरि सात गुणस्थानकनि विषै वैक्रियिक योग भी नाही है; ताते प्रमत्त विष तौ आहारकद्विक के मिलने ते ग्यारह योग है, औरनि विष नव नव योग है । बहुरि सयोगी विष सत्य-अनुभय · मनोयोग, सत्य-अनुभय वचनयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्माण ए सात योग है । अयोगी गुणस्थान विष योग नाही तातै शून्य है । बहुरि स्त्री, पुरुष, नपुसक वेदनि करि उदय करि वेद हो है, ते तीनौ अनिवृत्तिकरण के सवेदभाग पर्यत है; ऊपरि नाही ।
बहुरि क्रोधादिक च्यारि कषायनि का यथायोग्य अनतानुबधी इत्यादि रूप उदय होत संतै क्रोध, मान, माया, लोभ हो है। तहां मिथ्यादृष्टी सासादन विपै तो अनंतानुबंधी आदि च्यारि च्यारि प्रकार है । मिश्र असयत विष अनतानुवधी विना