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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ] [ ७१ औषधि सेवन करि रोग नष्ट हो है; तैसे मंगल करने करि विघ्नकर्ता अन्तरायकर्म के नाश का अविरोध है, तातै शंका न करनी। जैसे प्रथम प्रयोजन दृढ़ कीया । बहुरि तर्क - जो ऐसा न्याय है "सर्वथा स्वहितमाचरणीयं किं करिष्यति जनो बहुजल्पः । विद्यते नहि स कश्चिदुपाय सर्वलोकपरितोषकरो यः ॥" याका अर्थ - जो सर्वप्रकार करि अपना हित का आचरण करना । अपना हित करते बहुत बकै है जो मनुष्यलोक, सो कहा करेगा ? अर कोऊ कहै जो सर्व प्रसन्न होइ, सो कार्य करना; तो लोक विषै सो कोई उपाय ही नाही, जो सर्व लोक को संतोष करै । जैसे न्याय करि जाका प्रारभ करो हौ, ताका प्रारभ करौ । नास्तिकवादी का परिहार करि कहा साध्य है ? तहा कहिए है - जैसा भी न कहना । जातै प्रशम, सवेग अनुकपा, आस्तिक्य गुण का प्रगट होनेरूप लक्षण का धारी सम्यग्दर्शन है । यातै नास्तिकवादी का परिहार करि प्राप्त जो सर्वज्ञ, तिहने आदि देकरि पदार्थनि विषै जो आस्तिक्य भाव हो है, ताकै सम्यग्दर्शन का प्राप्ति करने का कारणपना पाइए है । बहुरि असा प्रसिद्ध वचन है "यद्यपि विमलो योगी, छिद्रान् पश्यति मेदनि । तथापि लौकिकाचार, मनसापि न लंघयेत् ॥" याका अर्थ- यद्यपि योगीश्वर निर्मल है, तथापि पृथ्वी वाके भी छिद्रनि को देखै है । तातै लौकिक आचार कू मन करि भी उल्लंघन न करै; असं प्रसिद्ध है। तातै नास्तिक का परिहार कीया चाहिये । औसै दूसरा प्रयोजन दृढ कीया। बहुरि तर्क - जो शिष्टचार का पालन किस अर्थ करिए ? तहां कहिए है - असा विचार योग्य नाही, जाते असा वचन मुख्य है "प्रायेण गुरुजनशीलमनुचरंति शिष्याः।" याका अर्थ - जे शिष्य है ते, अतिशय करि गुरुजन का जु स्वभाव, ताको अनुसार करि आचरण कर है । बहुरि असा न्याय है - "मगलं निमित्तं हेतु परिमाणं नाम कर्तारमिति षडपि व्याकृत्याचार्याः पश्चाच्छास्त्रं व्याकुर्वन्तु" याका अर्थ-जो मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम, कर्ता इन छहों की पहिले करि
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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