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________________ ७४२ ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७०१-७०२ तिर्यग्गतौ चतुर्दश, भवंति शेषेषु जानीहि द्वौ द्वौ तु । मार्गणास्थानस्यैवं, ज्ञेयानि समासस्थानानि ॥ ७०० ॥ टीका - तियंचगति विषै जीवसमास चौदह हैं । अवशेष गतिनि विषै संज्ञी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय दोय जीवसमास जानने । असे मार्गणास्थानकनि विषै यथायोग्य पूर्वोक्त अनुक्रम करि जीवसमास जानने । आगे गुणस्थाननि विषै पर्याप्ति वा प्राण कहै हैं पज्जत्ती पाणा विय, सुगमा भाविदियं ण जोगिन्हि । तहि वाचस्सासाउगकायत्तिगदुगमजोगिणो आऊ ॥७०१ ॥ पर्याप्तयः प्रारणा अपि च, सुगमा भावेद्रियं न योगिनि । तस्मिन् वागुच्छ्वासायुष्ककायत्रिकद्विकमयोगिन प्रायुः ॥७०१ ॥ टीका - चौदह गुणस्थाननि विषे पर्याप्ति पर प्रारण जुदे न कहिए है; जातें सुगम है । तहा क्षीणकषाय पर्यंत तो छहौ पर्याप्ति है, दशौ प्राण हैं । बहुरि सयोगी जिन विषै भावेद्रिय तौ है नाहीं, द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा छह पर्याप्त है । बहुरि सयोगी के प्राण च्यारि है - १ वचनबल, २ सासोस्वास, ३ आयु, ४ कायबल ए च्यारि है । अवशेप पंचेंद्रिय अर मन ए छह प्रारण नाहीं है । तहा वचनबल का प्रभाव होते तीन ही प्राण रहै है । उस्वास निश्वास का प्रभाव होते दोय ही रहै है । बहुरि प्रयोगी विषे एक श्रायु प्राण ही रहे है । तहां पूर्वे सचित भया था, जो कर्मनोकर्म का स्कंध, सो समय समय प्रति एक एक निषेक गलते अवशेष द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्व रह्या, सो द्रव्यार्थिक नय करि तौ प्रयोगी का अतसमय विषै नष्ट हो है । पर्यायार्थिक नय करि ताके अतर समय विषे नष्ट हो है - यह तात्पर्य है । गुणस्थाननि विषै संज्ञा कहै है छट्ठोत्ति पढमसण्णा, सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा । पुवो पढमणिट्टो, सुमो त्ति कमेण सेसा ॥७०२ ॥ षष्ठ इति प्रथमसंज्ञा, सकार्या शेषाश्च काररणापेक्षाः । अपूर्व: प्रथमानिवृत्तिः, सूक्ष्म इति क्रमेण शेषाः ॥७०२ ॥
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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