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सम्यग्जानन्तिका भाषाटोका ]
[ ७२६ टोका- कार्माण काययोगवाले जीवनि का जो प्रमाण योगमार्गणा विष कह्या, सोई अनाहारक जीवनि का प्रमाण जानना । इसकौ ससारी जीवनि का प्रमाण में घटाएं, अवशेष रहै, तितना आहारक जीवनि का प्रमाण जानना । सोई कहै हैं - प्रथम योगनि का काल कहिए है - कार्माण का तौ तीन समय, औदारिक मिश्र का अंतर्मुहूर्त प्रमाण, औदारिक का तीहिस्यो संख्यात गुणा काल, तहा सर्वकाल मिलाएं तीन समय अधिक संख्यात अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल भया । याका किचित् ऊन संसारी राशि का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, ताको तीन करि गुण, जो प्रमाण आवै तितने अनाहारक जीव है; अवशेष सर्व संसारी आहारक जीव है । वैक्रियिक, आहारकवाले थोरे है, तिन की मुख्यता नाही है ।
इहां प्रक्षेपयोगोद्धतमिश्रपिंडःप्रक्षेपकारणां गुरगको भवेदिति, असा यह करणसूत्र जानना। याका अर्थ - प्रक्षेप को मिलाय करि मिश्र पिंड का भाग देइ, जो प्रमाण होइ ताको प्रक्षेपक करि गुणे, अपना अपना प्रमाण होइ । जैसे कोई एक हजार प्रमाण वस्तु है, तातै किसी का पंच बट है, किसी का सात बट है, किसी का आठ बट है। सब को मिलाएं प्रक्षेपक का प्रमाण बीस भए। तिस बीस का भाग हजार को दीएं पचास पाए, तिनको पंच करि गुण, अढाई सै भए, सो पच बटवाले के आए । सात करि गुण, साढा तीन सौ भए, सो सात बटवाले के आए । आठ करि गुणे, च्यारि से भए, सो आठ बटवाले के आए । असे मिश्रक व्यवहार विषै अन्यत्र भी जानना । इति आचार्य श्रीनेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पचसग्रह न थ की जीवतत्त्व प्रदीपिका नाम सस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचद्रिका नामा भाषाटीका विष जीवकाण्ड विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा तिनिविष आहार-मार्गणा प्ररूपणा
नाम उगनीसवा अधिकार सपूर्ण भया ॥१९॥
___ सच्चे उपदेश से निर्णय करने पर भ्रम दूर होता है, परतु ऐसा पुरुपार्थ नही करता, इसी से भ्रम रहता है। निर्णय करने का पुरुषार्थ करे-तो भ्रम का कारण जो मोह-कर्म, उसके भी उपशमादि हो, तब भ्रम दूर हो जाये, क्योकि निर्णय करते हुए परिणामो की विशुद्धता होती है, उससे मोह के स्थिति अनुभाग घटते है।
- मोक्षमार्ग प्रकाशक : अधिकार ६, पृष्ठ-३१०