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सम्यग्ज्ञानचन्तिका गापाटीका 1
[ ७२५ मीमांसति यः पूर्व, कार्यमकार्यं च तत्त्वमितरच्च ।
शिक्षते नाम्ना एति च, समनाः अमनाश्च विपरीतः ।।६६२॥ टीका - जो पहिलै कार्य - अकार्य को विचार, तत्त्व - अतत्त्व को सीखे, नाम करि बुलाया हुवा आवै, सो जीव मन सहित समनस्क, सज्ञी जानना । इस लक्षण ते उलटा लक्षण को जो धरै होइ, सो जीव मन रहित अमनस्क असंज्ञी जानना।
इहां जीवनि की संख्या कहैं हैं - देवेहि सादिरेगो, रासी सण्णीण होदि परिमाणं । तेणणो संसारी, सव्वेसिमसण्णिजीवाणं ॥६६३॥
देवैः सातिरेको, राशिः संजिनां भवति परिमारणम् । ' , तेनोनः संसारी सर्वेषामसंज्ञिजीवानाम् ॥६६३॥
टीका - च्यारि प्रकार के देवनि का जो प्रमाण, तिनित किछु अधिक सज्ञी जीवनि का प्रमाण है । संज्ञी जीवनि विष देव बहुत है । तिनिविष नारक, मनुष्य, पंचेंद्री सैनी तिर्यंच मिलाए सज्ञी जीवनि का प्रमाण हो है । इस प्रमाण को संसारी जीवनि का प्रमाण में घटाएं, अवशेष सर्व असंजी जीवनि का प्रमाण हो है। इति आचार्य श्रीनेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसग्रह ग्रंथ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नाम भाषा टीका विष जीवकाण्ड विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा, तिनिविष सज्ञी-मार्गणा
प्ररूपणा नामा अठारहवा अधिकार सपूर्ण भया ॥१८॥
तत्त्वनिर्णय करने में उपयोग न लगावे वह तो इसी का दोष है । तथा पुरुपार्थ से तत्त्वनिर्णय में उपयोग लगावे तब स्वयमेव ही मोह का अभाव होने पर सम्यत्वादि रूप मोक्ष के उपाय का पुरुषार्थ बनता है।
, - मोक्षमार्ग प्रफाशक अध्याय ६, पृष्ठ-३११