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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६०८-६१०
भास-मण- वग्गणादो, कमेण भाषा मणं च कम्मादो | अट्ठ-विह-कम्मदव्वं, होदि त्ति जिणेहि रिद्दिट्ठ ॥ ६०८ ॥
भाषामनो वर्गरणातः क्रमेण भाषा मनश्च कार्मणतः । श्रष्टविधद्रव्यं भवतीति जिनैर्निदिष्टम् ||६०८ ||
टीका - भाषावर्गणा का स्कंधनि करि च्यारि प्रकार भाषा हो है । सुतोवर्गणा का स्कंधनि करि द्रव्यमन हो है । कार्मारण वर्गरणा का स्कंधनि करि आठ प्रकार कर्म हो है, जैसे जिनदेवने का है ।
रिपद्धतं लुक्खत्तं, बंधस्स य कारणं तु एयादी । संखेज्जासंखेज्जाणंतविहा णिद्धलुक्खगुणा ॥ ६०६ ॥
स्निग्धत्वं रूक्षत्वं, बन्धस्य च कारणंतु एकादयः । संख्येयासंख्येयानन्तविधाः स्निग्धरूक्षगुणाः || ६०९॥
टीका बाह्य अभ्यंतर कारण के वश ते जो स्निग्ध पर्याय का प्रगटपना करि चिकणास्वरूप होइ, सो स्निग्ध है । ताका भाव, सो स्निग्धत्व कहिये ।' बहुरि रुखारूप होई, सो रूक्ष है; ताका भाव, सो रूक्षत्व कहिए । सो जल वा छेली का दूध वा गाय का दूध वा भैसि का दूध वा ऊटरणी का दूध वा घृत इनि विषै स्निग्धगुण की अधिकता वा हीनता देखिए है । अर धूलि, वालू, रेत वा तुच्छ पाषाणादिक इनिविषै
गुण की अधिकता वा हीनता देखिए है । तैसे ही परमाणू विषै भी स्निग्ध रूक्षगुण की विकता हीनता पाइए है । ते स्निग्ध - रूक्षगुण द्वयणुकादि स्कंधपर्याय का परि गमन का कारण हो है । बहुरि चकार तै स्कंध ते बिछुरने के भी कारण हो है । स्निग्धरूप दोय परिमाणूनि का वा रूक्षरूप दोय परमाणू का एक रूक्ष वा एक स्निग्ध परमाणू का परस्पर जुडनेरूप बंध होते द्वयणुक स्कंध हो है । जैसे सख्यात, असंख्यात, ते परिमाणूनि का स्कध भी जानना । तहां स्निग्ध ग ुण वा रूक्षगण अंशनि की अपेक्षा सख्यात, असख्यात, प्रनत भेद कौ लीए है ।
एयगुरगं तु जहां, द्धित्तं विगुण-तिगुण-संखेज्जाsसंखेज्जाणंतगुणं, होदि तहा रुक्खभावं च ॥ ६१०॥
१. ‘स्निग्पस्वत्वादुवचः' तत्त्वायंसूत्र श्रध्याय ४, सूत्र -३३ ।