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[ गोम्मटमार जीवक13 गाया ६०० ६६४ ]
इहां तर्क - जो वचन अमूर्तीक है, तहां कहिए है, अशा कहना भी प्रयुक्त है, जाते वचन मूर्तीक करि ग्रह्या जाय है। वा मूर्तीक द्रव्य करि रुक है वा नष्ट हो है; तातै मूर्तीक ही है । बहुरि द्रव्य भाव के भेद ते मन भी दोय प्रकार है । तहा भावमन तौ लब्धि उपयोग रूप है, सो क्षयोपशमादिक पुद्गलीक निमित्त ते हो है । ताते पुद्गलीक ही है । बहुरि ज्ञानावरण, वीर्यांतराय का क्षयोपशम पर अगोपाग नामा नामकर्म का उदय, इनिके निमित्त ते गुण - दोष का विचार, स्मरण, इत्यादिकल्प सन्मुख भया, जो आत्मा, ताको उपकारी जे पुद्गल, सो मनरूप होइ परिणव हैं। ताते द्रव्यमन भी पुद्गलीक है ।
इहां कोऊ कहै कि मन तौ एक जुदा ही द्रव्य है, रूपादिकरूप न परिणव हैं। अणूमात्र है । तहा आचार्य कहै है - तीहि मन स्यौं अात्मा का संबंध है कि नाही है? जो संबंध नाही है तो आत्मा को उपकारी न होइ, इन्द्रियनि विर्षे प्रधानता को न धरै और जो संबध है तो, वह तो अणूमात्र है, सो एकदेश विप उपकार करेगा अन्य प्रदेशनि विषै कैसे उपकार कर है ? । . तहां तार्किक कहै है - अमूर्तीक, निष्क्रिय आत्मा का एक अदृप्टनामा गुरण है। सो अदृष्ट जो कर्म ताका वश करि तिस मन का कुभार का चक्रवत परिभ्रमण करै है, सो असा कहना भी प्रयुक्त है । अणूमात्र जो होइ ताके भ्रमण की समर्थता नाही । बहुरि अमूर्तीक निष्क्रिय का अदृष्ट गुण कह्या, सो औरनि के क्रिया का आरंभ करावने को समर्थ न होइ। जैसै पवन आप क्रियावान है, सो स्पर्श करि बनस्पती को चंचल कर है, सो यह तौ अणूमात्र निष्क्रिय का गुण सो आप क्रियावान नाही, अन्य को कैसे क्रियावान प्रवर्तावै है ? तातै मन पुद्गलीक ही है। , बहुरि वीर्यातराय अर ज्ञानावरण का क्षयोपशम अर अंगोपांगनामा नामकर्म के उदय, तीहि करि संयुक्त जो आत्मा, ताके निकसतौ जो कंठ सवधी उस्वासरूप पवन, सो प्राण कहिए। बहुरि तोहिं पवन करि बाह्य पवन कौ अभ्यंतर करता निस्वासरूप पवन, सो अपान कहिए । ते प्राण-अपान जीवितव्य को कारण है । तातै उपकारी है, सो मन अर प्राणापान ए मूर्तीक है । जातै भय के कारण बज्रपातादिक मूर्तीक, तिनितै मन का रुकना देखिए है। बहुरि भय के कारण दुर्गंधादिक, तीहि करि वा हस्तादिक तें मुख के माच्छादन करि वा श्लेष्मादिक करि प्राण-अपान का रुकना देखिये है, तातै दोऊ मूर्तीक ही है। अमूर्तीक होइ तौ मूर्तीक करि रुकना व