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________________ ६७६ ] [गोम्मटसारनीवकागाना2-1९. लब्धप्रमाण शलाका प्रसंख्यात भई । वहुरि प्रमागराशि शलाका मा प्रमाण, तल राशि अवधिज्ञान के भेद, इच्छाराशि एक शलाका, सो यथोक्त करता प्रवधिज्ञान जेते भेद हैं, तिनि के असंख्यातवें भाग प्रमाण धर्म, अधर्म, लोकालाश, काल उनि च्यार्यों के एक-एक प्रदेशनि का प्रमाण भया । इति संख्याधिकारः । सब्बमरूवी दव्वं, अवठ्ठिदं अचलिया पदेसा वि। रूवी जीवा चलिया, ति-वियप्पा होति हु पदेसा ॥५६२॥ सर्वमरूपि द्रव्यमवस्थितमचलिताः प्रदेशा अपि । रूपिणो जीवाश्चलितास्त्रिविकल्पा भवंति हि प्रदेशाः ॥५६२॥ टीका - सर्व अरूपी द्रव्य जो मुक्त जीव अर धर्म पर प्रथम पर प्रामाश अर काल सो अवस्थित है, अपने स्थान ते चलते नाही। बहुरि उनिके प्रदेश भी प्रचलित ही है; एक स्थान विर्ष भी चलित नाही हैं। वहरि ल्पी जीव, जे संगारी जीव ते चलित है; स्थान ते स्थानांतर विपै गमनादि कर हैं। बहुरि संसारी जीवनि । के प्रदेश तीन प्रकार है। विग्रह गति विपै सो सर्व चलित ही है। बहुरि प्रयोगकेवली गुणस्थान विष प्रचलित ही है । बहुरि अविशेष जीव रहे, तिनिके पाठ प्रदेश तौ प्रचलित है । अरशेष प्रदेश चलित हैं। (योगरूप परिणमन ते) १ इस आत्मा के अन्य प्रदेश तौ चलित हो है अर पाठ प्रदेश अकंप ही रहैं है। पोग्गल-दव्वम्हि अण, संखेज्जादी हवंति चलिदा हु। चरिम-महक्खंधम्मि य, चलाचला होति पदेसा ॥५६३॥ पुद्गलद्रव्ये अरणवः, संख्यातादयो भवन्ति चलिता हि । चरममहास्कन्धे च, चलाचला भवंति हि प्रदेशाः ।।५९३॥ टीका - पुद्गल द्रव्य विष परमाणू अर द्वयणुक आदि संख्यात, असंत्यात, अनंत परमाणू के स्कध, ते चलित है। बहुरि अंत का महास्कंध विप केई परमाणू प्रचलित है, अपने स्थान ते त्रिकाल विर्ष स्थानांतर को प्राप्त न होंइ । बहुरि केई परमाणू चलित है; ते यथायोग्य चंचल हो है। १. व, घ प्रति मे 'योगरूप परिणमन तै' इतना ज्यादा है।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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