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________________ ६४६ ] [ गोम्मटसार जोवकाण्ड गाथा ५५६-५६० टीका जे भव्य जीव भव्यत्व जो सम्यग्दर्शनादि सामग्री को पाइ, अनंत चतुष्टय रूप होना, ताकी केवल योग्य ही है, तद्रूप होने के नाही, ते भव्य सिद्ध है । सदा काल संसार को प्राप्त रहें है । काहे तें ? सो कहिये हैं - जैसे केई सुवर्ण सहित पाषाण अस है, तिनके कदाचित् मैल के नाश करने की सामग्री न मिले, तैसें केई भव्य जैसे है जिनकै कर्म मल नाश करने की कदाचित् सामग्री नियम करि न संभव है । भावार्थ जैसे अहमिंद्र देवनि कैं नरकादि विषै गमन करने की शक्ति है, परतु कदाचित् गमन न करें, तैसें केई भव्य असें है, जे मुक्त होने कौं योग्य है, परन्तु कदाचित् मुक्त न होंइ । - णय जे भव्वाभव्वा, मुत्तिसुहातीदणंतसंसारा । ते जीवा णायव्वा, रोव य भव्वा श्रभव्वा य ॥५५६ ॥ · न च ये भव्या अभव्या, मुक्तिसुखा श्रतीतानंतसंसाराः । ते जीवा ज्ञातव्या, नैव च भव्या अभव्याश्च ।। ५५९ ॥ टीका जे जीव केई नवीन ज्ञानादिक अवस्था कौं प्राप्त होने के नाहीं ; 'तात भव्य भी नाही । अर अनंत चतुष्टय रूप भए, तातें अभव्य भी नाहीं, असे मुक्ति सुव के भोक्ता अनंत संसार रहित भए, ते जीव भव्य भी नाही अर अभव्य भी नाहीं; जीवत्व पारिणामिक को धरै हैं; से जानने । इहां जीवनि की संख्या कहै हैं अवरो जुत्तारतो, अभव्वरासिस्स होदि परिमारणं । ते विहीणी सव्वो, संसारी भव्वरासिस्स ॥ ५६० ॥ - अवरो युक्तानन्तः, अभव्यराशे र्भवति परिमाणम् । तेन विहीनः सर्वः, संसारी भव्यराशेः ॥५६० ।। जघन्य युक्तानंत प्रमाण अभव्य राशि का प्रमाण है । बहुरि संसारी अवशेष रहे, तितना भव्य टीका जीवनि के परिमाण में भव्य राशि का परिमाण घटाएं, राशि का प्रमाण है । इहां संसारी जीवनि के परिवर्तन परिभ्रमण, ससार ए एकार्य हैं । सो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव, भेद तें परिवर्तन कहिए है - परिवर्तन अर
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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